आचार्य श्रीराम शर्मा >> अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाए अध्यात्मवादी भौतिकता अपनाई जाएश्रीराम शर्मा आचार्य
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अध्यात्मवाद पर आधारित पुस्तक
यहाँ हमारा उददेश्य इन दोनों स्थितियों में तुलना या श्रेष्ठता के आधार ढूँढ़ना नहीं है। शिव के आध्यात्मिक रहस्यों का ज्ञान करना अभीष्ट है, ताकि लोग इस महत्त्व का भलीभाँति अवगाहन कर अपना जीवन लक्ष्य सरलतापूर्वक साध सकें।
शिव का आकार लिंग माना जाता है। उसका अर्थ यह है कि यह सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है। ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक-सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है। मनुष्य को आत्मा की उपासना करनी चाहिए, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। सांसारिक रूप-सौंदर्य और विविधता में घसीटकर उस मौलिक सौंदर्य को तिरोहित नहीं करना चाहिए।
शिव के स्वरूप, अलंकार और जीवन संबंधी घटनाओं का और भी विशद वर्णन मिलता है। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में या तो किसी दार्शनिक तत्त्व का विवेचन सन्निहित है अथवा व्यावहारिक आचरण की शिक्षा दी गई है। आइये, इन पर एक-एक करके विचार किया जाए-
(१) शिव का स्वरूप भगवान शंकर के स्वरूप में जो विचित्रतायें हैं, वह किसी मनुष्य की देह में संभव नहीं; इसलिए उसकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है। पर हमें यह जानना चाहिए कि यह चित्रण सामान्य नहीं, अलंकार है-जो मनुष्यों में योग-साधनाओं के आधार पर जाग्रत् होते हैं।
(क) माथे पर चंद्रमा चंद्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है अर्थात् योगी का मन सदैव चंद्रमा की भाँति उत्फुल्ल, चंद्रमा की भाँति खिला और निःशंक होता है। चंद्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है अर्थात् उसे जीवन की अनेक गहन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी प्रकार का विभ्रम अथवा ऊहापोह नहीं होता। वह प्रत्येक अवस्था में प्रमुदित रहता है, विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
(ख) नीलकंठ-पुराणों में ऐसी कथा आती है कि देवों और दानवों को संघर्ष से बचाने के लिए भगवान् शंकर ने विष पी लिया था, तब से इनका कंठ नीला है, अर्थात् इन्होंने विष को कंठ में धारण किया हुआ है। इस कथानक का भी सीधा-साधा संबंध योग की सिद्धि से ही है। योगी पुरुष अपने सूक्ष्म शरीर पर अधिकार पा लेता है, जिससे उसके स्थूल शरीर पर बड़े तीक्ष्ण विषों का भी प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह सामान्य मानकर ही पचा लेता है।
यह बात इस तरह भी है कि संसार के मान-अपमान, कटुता-क्लेश आदि दुःख-कष्टों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता। उन्हें भी वह साधारण घटनायें मानकर आत्मसात् कर लेता है और संसार का कल्याण करने की अपनी आत्मिक वृत्ति में निश्चल भाव से लगा रहता है। दूसरे व्यक्तियों की तरह लोकोपकार करते समय उसे स्वार्थ आदि का कोई ध्यान नहीं होता। वह निर्विकार भावना के साथ भलाई में जुटा रहता है। खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है।
(ग) विभूति रमाना-शिव ने सारे शरीर पर भस्म रमा रखी है। योग की पूर्णता पर संयम-सिद्धि होती है। योगी अपने वीर्य को शरीर में रमा लेते हैं, जिससे उनका सौंदर्य फूट पड़ता है। इस सौंदर्य को भस्म के द्वारा अपने आप में रमा लेता है। उसे बाह्य अलंकारों द्वारा सौंदर्य बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती। अक्षुण्ण संयम ही उसका अलंकार बन गया है, जिससे उसका स्वास्थ्य और शरीर सब कांतियुक्त हो गये हैं।
(घ) तृतीय नेत्र- योग की भाषा में इसे तृतीय नेत्रोन्मीलन या आज्ञा-चक्र का जागरण भी कहते हैं। उसका संबंध गहन आध्यात्मिक जीवन से है। घटना प्रसंग जुड़ा हुआ है कि शिवजी ने एक बार तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भी जला दिया था। योगी का यह तीसरा नेत्र यथार्थ ही बड़ा महत्त्व रखता है। सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जाग्रत् रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाते। उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है। इसे वैज्ञानिक बुद्धि का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है। पर सबका तात्पर्य यही है कि तृतीय नेत्र होना साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुँचा देना है। भारतीय संस्कृति का यह वैज्ञानिक पहलू कहीं अधिक मूल्यवान् भी है।
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