आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणाश्रीराम शर्मा आचार्य
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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....
२. (ख) प्राणमय कोश
प्राणमय कोश सूक्ष्म शरीर का वह भाग है जिसे विद्युत भांडागार कह सकते हैं। शरीर भी एक मशीन है। मशीनों के चलने में कोयला, भाप, तेल, बिजली आदि के आधार पर उत्पन्न ऊर्जा काम करती है। मनुष्य या पशु के शरीर से ही आरंभिक दिनों में यह शक्ति प्राप्त होती थी, इसलिए उसे अश्व शक्ति के नाम से नापा-तोला जाता था। मनुष्य शरीर के कलपुर्जे इतने अधिक हैं कि यदि उनकी छोटी इकाइयों को भी गिना जाय तो वे अरबों की संख्या में जा पहुँचेंगी। इन सभी का संयुक्त अस्तित्व तो अवयवों के रूप में है ही, वे स्वतंत्र घटक के रूप में भी अपने अद्भुत क्रिया-कलापों को चलाते हैं। इनकी गतिशीलता एक विशेष प्रकार की बिजली के आधार पर चलती है। विशेष प्रकार की इसलिए कि मशीनों को चलाने वाली स्थूल बिजली से बहुत अंशों में मिलती-जुलती होते हुए भी उसकी मौलिक विशेषताएँ और भिन्नताएँ भी हैं। इसलिए उसे प्राणि विद्युत कहा जाता है। अध्यात्म विज्ञान में इसे 'प्राण' कहा गया है। इसी सामर्थ्य के सहारे काया के समस्त अवयव और घटक अपना-अपना काम अनवरत रूप से चलाते रहने में समर्थ होते हैं।
कारखाने में काम करने वाली मशीनों का अपना विज्ञान है। उन्हें चलाने वाली बिजली भी मोटी दृष्टि से देखने में मशीनों के साथ अपना कार्य संयुक्त रूप से करती दीखती है, फिर भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व और स्वतंत्र विज्ञान है। मशीनें और बिजली मिलजुलकर काम जरूर करती हैं, फिर भी दोनों की स्वतंत्र सत्ता को भली प्रकार देखा, समझा जा सकता है। प्राण विद्युत के सहारे शरीर की समस्त इकाइयाँ काम करती हैं; इसलिए उसे काय-सत्ता में घुला-मिला समझा जा सकता है। इतने पर भी यह प्राण विद्युत अपने आप में एक विशिष्ट क्षमता ही कही जाएगी। यह समस्त शरीर के अंतराल में छाई रहती है और उसका प्रभाव, प्रकाश बाहर भी एक सीमा तक काम करता रहता है। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति उसके भीतर भी काम करती है और बहुत दूर तक उससे बाहर भी फैली रहती है। ग्रह-नक्षत्र परस्पर इसी आकर्षण शक्ति से बँधे रहते हैं और अनेक प्रकार के महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान उसी के आधार पर चलते रहते हैं। इस प्रकार प्राण विद्युत का कार्य क्षेत्र शरीर के भीतर ही नहीं बाहर भी है। शरीर के अंतर और बाह्य क्षेत्र में फैली हुई इस जैव विद्युत की परिधि को 'प्राणमय कोश' कहा जाता है।
मस्तिष्कीय संरचना का जिन्हें ज्ञान है, वे जानते हैं कि समस्त शरीर में मकड़ी के जाले की तरह फैले हुए ज्ञान तंतुओं का संबंध मस्तिष्क से जुड़ा रहता है और वे टेलीफोन के तारों की तरह संचार का कार्य करते हैं। शरीर में कहीं कुछ हलचल हो, उसकी सूचना मस्तिष्क तक पहुँचती है और स्थिति के अनुरूप जो कुछ करना है उसका निर्णय विभिन्न अवयवों को भेजा जाता है। जैसे किसी स्थान पर चींटी काटे तो उसकी सूचना मस्तिष्क को पहँचेगी और वहाँ से हाथ को उठने, उँगलियों को मुड़ने, चींटी हटाने और काटे स्थान को खुजला कर विष को हटा देने का आदेश मिलेगा। यह सब कुछ थोडी सी सेकंडों में ही हो जाता है। इस कार्य को संपन्न करने में ज्ञान तंतुओं से लेकर मस्तिष्क तंत्र तक को जो शक्ति लगानी पड़ती है, यह संव्याप्त प्राण विद्युत की होती है। सोचने, विचारने के लिए काम आने वाले मस्तिष्कीय भाग को सचेतन कहा जाता है। शरीर के भीतर अनवरत रूप से चलने वाले क्रिया-कलापों के पीछे अचेतन मस्तिष्क काम करता है। रक्त-संचार, श्वास-प्रश्वास, आकुंचनप्रकुंचन, निमेष-उन्मेष, पाचन, विसर्जन आदि के अनेकों क्रियाकलापों को संपन्न करना अचेतन का काम है। सचेतन और अचेतन दोनों ही मस्तिष्कों को अपना काम करते रहने की सामर्थ्य प्राण विद्युत से ही मिलती है। न केवल मस्तिष्क वरन् शरीर के सभी अवयव और घटक इसी बिजली के सहारे गतिशील रहते हैं। मस्तिष्क में (ई०ई०जी०) के और हृदय में (ई०सी०जी०) के सहारे इस विद्युत प्रवाह की नाप-तौल की जाती है। सामान्यतः इसे ताप के रूप में अनुभव किया जाता है। गतिशीलता इसी की प्रतिक्रिया है।
प्राण विद्युत का अनुपात एवं संतुलन ठीक बना रहने से ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है। उसमें गड़बड़ी होने से अवयवों की गतिशीलता लड़खड़ाती है और कई प्रकार के रोग उठ खड़े होते हैं। औषधियाँ रासायनिक गड़बड़ियों को ठीक कर पाती है क्योंकि वे रासायनिक पदार्थों की बनी होती हैं और अपने क्षेत्र में ही काम करती हैं। प्राण विद्युत की गड़बड़ी से उत्पन्न रोगों पर औषधियों का प्रभाव अत्यंत स्वल्प पड़ता है और उस तरह की बीमारियों को कष्टसाध्य या असाध्य कहकर औषधि विज्ञानी हार मान लेते हैं। यदि इन रोगों का प्राण उपचार संभव रहा होता तो उनकी निवृत्ति आसानी से संभव रही होती। मेस्मेरिज्म वर्ग के कितने ही ऐसे उपचार अब प्रकाश में आने लगे हैं जो प्राण विद्युत को प्रभावित कर उस क्षेत्र में उत्पन्न व्याधियों का निराकरण करते हैं। मस्तिष्क एवं नाड़ी संस्थान की व्याधियाँ तो प्रायः इस विद्युत क्षेत्र के असंतुलन से ही उत्पन्न होती हैं।
शारीरिक स्फूर्ति और मानसिक उत्साह की विशेषता प्राण विद्युत के स्तर और अनुपात पर निर्भर रहती है। बढ़ने पर मनुष्य उत्तेजित और चंचल दिखाई पड़ता है। घटने से आत्महीनता, संकोच, अन्यमनस्कता,उदासीनता, भीरुता, आशंका आदि बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं। चेहरे पर चमक, आँखों में तेज, मन में उमंग, स्वभाव में साहस, प्रवृत्तियों में पराक्रम इसी विद्युत प्रवाह का उपयुक्त मात्रा में प्रवाहित होना सिद्ध करता है। एक शब्द में इसे प्रतिभा कहा जा सकता है। अध्यात्म विज्ञान में इस तत्त्व को तेजस् कहा गया है।
तेजस् और कुछ नहीं प्राण शक्ति की उपयुक्त मात्रा का प्रमाण भर है। शरीर के इर्द-गिर्द फैला हुआ विद्युत प्रकाश तेजोवलय कहलाता है। इसका बाहुल्य चेहरे के इर्द-गिर्द रहता है। देवताओं और महापुरुषों के चेहरे के इर्द-गिर्द सूर्य जैसा आभा-मंडल चित्रित किया जाता है। यह इस तेजोवलय का ही प्रदर्शन है।
यह तो हआ काय-कलेवर के भीतर काम करने वाले विद्युत प्रवाह का संक्षिप्त एवं आंशिक परिचय। अब काया से बाहर के क्षेत्र में इस शक्ति के क्रिया-कलापों की बात आती है। संपर्क और संगति की निकटता और घनिष्टता के भले-बुरे प्रतिफलों की बात सभी जानते हैं। इसका आधार संपर्क क्षेत्र के प्राणियों के बीच चलने वाला यह विद्युतीय आदान-प्रदान ही होता है। आग अपने समीपवर्ती क्षेत्र पर प्रभाव डालती और उसे गरम करती है। बर्फ की ठंडक भी अपने प्रभाव क्षेत्र को ठंडा करती है। मनुष्य की प्राण विद्युत व्यक्ति की प्रखरता के अनुरूप एक छोटे या बड़े क्षेत्र में फैली रहती है और उस वातावरण के संपर्क में आने वाले लोग किसी न किसी प्रकार प्रभावित होते हैं। प्रतिभाशाली लोग प्रभावशाली भी होते हैं, वे दूसरों पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ते हैं, ऋषियों के आश्रमों में सिंह, गाय साथ पानी पीते और बिना वैर-भाव के साथ-साथ रहते थे। मनुष्यों पर, मनुष्येतर अन्य प्राणियों पर, यहाँ तक कि स्थानों एवं पदार्थों पर भी प्रतिभाशाली व्यक्तियों का प्रभाव पड़ता है। तीर्थों की गरिमा का आधार यही है। वहाँ किसी समय कोई प्रखर व्यक्तित्त्व रहे हैं और उनका प्रभाव अभी तक दृष्टिगोचर होता है। समय बीतने के साथ-साथ यह झीना भी होता जाता है, पर जीवित व्यक्तित्वों का प्रभाव तो उनके समीपवर्ती क्षेत्र में बना ही रहता है। वेश्याओं का कामुक आकर्षण, आततायियों का आतंक, सज्जनों का सत्प्रभाव बिना कुछ कहे-सुने ही मात्र समीपता के आधार पर काम करते देखा जाता है। इसे प्राण विद्युत का ही चमत्कार कहा जा सकता है।
अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं में कितनी ही ऐसी हैं जो प्राचीन काल में प्राण विद्युत के बुरे प्रभाव से बचने एवं अच्छे प्रभाव से लाभान्वित होने की दृष्टि से ही बनाई गई थीं। तब वे उपयोगी भी थीं, पर आज तो वे मात्र रूढियाँ रह गईं और अंध परंपरा के रूप में विकृत हो जाने पर निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी बन गईं हैं। छूतअछूत का भेद किसी समय दुष्टता एवं पतनोन्मुख प्रभाव क्षेत्र से बचने के लिए था। भोजन पकाने और परोसने के संबंध में किन व्यक्तियों का सहयोग लिया जाय, किसका न लिया जाय, इसका निर्णय भी इस तथ्य को ध्यान में रखकर किया जाता था। विवाह में वर-वधू के व्यक्तित्वों की समता का महत्त्व भी इसी आधार पर था। शैयाशायी होने पर विद्युत प्रवाह परस्पर अति तीव्रता से दौड़ता है और घटिया स्तर के संपर्क में बढ़िया स्तर वाला अपनी जमा पूँजी गँवाता है। सत्संग, श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरण-स्पर्श आदि में यह विद्युत प्रवाह ही प्रधान रूप से काम करता है।
प्राणवान, तपस्वी एवं तेजस्वी व्यक्ति अपने जमाने का वातावरण ही बदल देते हैं। ग्रीष्म ऋतु में हर वस्तु का तापमान बढ़ जाता है, वर्षा के दिनों हवा में नमी भरी रहती है। सर्दियों में ठंडक का दौर कहीं भी देखा जा सकता है। महामानव भी अपने समय में ऋतु प्रभाव की तरह काम करते हैं और लोकमानस को, वातावरण कोप्रभावित करते हैं। सज्जनों की तरह दुर्जनों का भी दुष्ट प्राण होता है और वह भी समीपवर्ती प्राणियों एवं पदार्थों को प्रभावित करता है। दुर्जनों और सज्जनों के छोड़े हुए प्राण बहुधा आकाश में टकराते रहते हैं। उस टकराव को ही देवासुर संग्राम कहा जाता है।
शरीर के पोषण-अभिवर्धन के लिए, उसकी आधि-व्यधियों का निवारण करने के लिए विविध उपाय-उपचार किए जाते हैं। प्राण शरीर का कार्य क्षेत्र प्रत्यक्ष शरीर से कहीं बड़ा है। उसका महत्त्व एवं प्रभाव भी अधिक है। दुर्बल और रुग्ण काया में भी समर्थ प्राण हो तो वह आद्य शंकराचार्य की तरह रुग्ण एवं अल्पजीवी होते हुए भी आश्चर्यचकित कर देने वाले कार्य कर सकता है, किंतु यदि प्राण शक्ति दुर्बल रही हो तो फिर स्थूलकाय प्राणी भी दीनदरिद्रों की तरह अनाथ-असहायों की तरह दयनीय स्थिति में पडा हुआ किसी प्रकार जिंदगी की लाश ढो रहा होगा।
प्राण ही जीवन है। उसके निकल जाने पर मृतक काया तत्काल सड़ने-गलने लग जाती है। विश्व-प्राण के रूप में वह समस्त ब्रह्मांड में भरा पड़ा है। इसमें से अपनी पात्रता के अनुरूप जितना अभीष्ट हो, उतना अपने लिए उपलब्ध कर सकते हैं। मरने के बाद प्रेत शरीर में प्रायः प्राणमय कोश ही अपना अस्तित्व बनाए और परिचय देता रहता है। प्राणमय कोश को महाप्राण का भाण्डागार बना देने की, प्राण विद्युत के चमत्कारी सत्परिणाम प्राप्त करने की विद्या को प्राण विद्या कहते हैं। कठोनिपषद् में यम ने जिज्ञासु नचिकेता को प्राणग्नि विद्या का प्रशिक्षण दिया और उसे धन्य बनाया था। यही प्राणमय कोश की साधना योगशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अंग है। प्राणयोग के विभिन्न उपचारों से इसी की सिद्धि का प्रयास किया जाता है। ब्रह्मवर्चस् साधना में प्राणमय कोश की ध्यान-धारणा से इसी दिशा में आशाजनक प्रगति कर सकने का पथ-प्रशस्त होता है।
ध्यान करें-शरीर में एक दिव्य विद्युत संचार व्यवस्था है, प्राण विद्युत का हर छोटी-से-छोटी इकाई में प्रवाह होता रहता है। शरीर भर में अगणित चमकीले प्रवाह अनुभव करें। इन प्रवाहों का शरीरस्थ केंद्र मूलाधार चक्र। वहाँ दिव्य प्राण की स्वप्रकाशित भंवर। भँवर की गति के साथ उससे छूटती, फैलती प्राण धाराएँ सारे संस्थान में फैलती हुई परिलक्षित होती हैं।
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- ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
- पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
- गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
- साधना की क्रम व्यवस्था
- पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
- कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
- ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
- दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
- ध्यान भूमिका में प्रवेश
- पंचकोशों का स्वरूप
- (क) अन्नमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ख) प्राणमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ग) मनोमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (घ) विज्ञानमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ङ) आनन्दमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
- कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
- जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
- चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
- आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
- अंतिम चरण-परिवर्तन
- समापन शांति पाठ