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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

२. सविता अवतरण का ध्यान


बिजली यों मोटर के सभी तारों में दौड़ती है, पर उसका नियंत्रण स्टार्टर या स्विच से होता है। ताला एक पूर्ण यंत्र है, पर उसके खुलने, बंद होने की क्रिया ताली के छिद्र से होती है। आहार का परिपाक एवं उपयोग पूरे शरीर में होता है, पर उसे ग्रहण मुख मार्ग से ही किया जाता है। इसी प्रकार प्राणमय कोश यों एक पूरा शरीर है, किंतु उसका नियंत्रण केंद्र मूलाधार चक्र है।

मूलाधार चक्र मल-मूत्र छिद्रों के मध्य भाग में माना गया है। यह त्वचा से सटा-गुथा नहीं, वरन् गुदा गह्वर में प्रायः तीन अंगुल की गहराई पर होता है। इसे मेरुदंड के अंतिम अस्थि भाग के समीप कहा जा सकता है। प्रत्यक्षतः तो यहाँ कुछ नाड़ी गुच्छक, प्लेक्सस, हारमोन ग्रंथियों तथा योनिकंद का अस्तित्व है, पर इनमें से एक को भी मूलाधार चक्र नहीं कहा जा सकता। चक्र सूक्ष्म हैं। वे परमाणु घटकों की तरह आँखों से नहीं देखे जा सकते, प्रतिक्रियाओं के आधार पर उनके अस्तित्व, स्वरूप एवं क्रिया-कलाप का निर्धारण किया जा सकता है। जिस क्षेत्र में यह चक्र होते हैं वहाँ के सूक्ष्म अवयवों की क्रियाएँ मिलती-जुलती हो जाती हैं जैसे कि चंदन की सुगंध से समीपवर्ती वातावरण भी वैसा ही सुगंधमय हो जाता है। नाड़ी गुच्छक 'प्लेक्सस' शरीर में मेरुदंड के इर्द-गिर्द पाए जाते हैं, कइयों ने उन्हें ही चक्र संज्ञा दी है, पर वस्तुतः वैसे हैं नहीं। वे सक्ष्म शरीर के महत्त्वपूर्ण अवयव एवं शक्ति केंद्र हैं। मूलाधार चक्र उन्हीं में से एक है।

प्राणमय शरीर का केंद्र मूलाधार चक्र है। प्राणमय कोश का प्रवेश द्वार भी उसे कहते हैं। प्रवेश द्वार से तात्पर्य है व्यष्टि और समष्टि का संपर्क बिंदु। जिस प्रकार गर्भस्थ बालक नाभि नाल के माध्यम से माता के साथ जुड़ा रहता है, उसी प्रकार इन प्रवेश द्वारों को व्यष्टि और समष्टि के बीच का समन्वय संस्थान इन चक्रों को कहा जा सकता है। जिस प्रकार परमाणु अपनी धुरी पर घूमता है, उसी प्रकार यह चक्र भी नदी के भँवर की तरह निरंतर गतिशील रहते हैं। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में गरम हवा के प्रवाह की उलझन चक्रवात, साइक्लोन उत्पन्न करती है, उसी प्रकार इन चक्रों की स्थिति भी शक्ति भँवर एवं समर्थ चक्रवात जैसी होती है। इसी द्रुतगामी परिभ्रमण के कारण उनके मध्य वह सशक्तता उत्पन्न होती है, जिसके सहारे अनेक प्रकार के दिव्य एवं चमत्कारी प्रयोजन पूरे होते हैं।

प्राणमय कोश की ध्यान-धारणा में भावना करनी पड़ती है कि सविता शक्ति मूलाधार चक्र के माध्यम से समस्त प्राणमय कोश में प्रवेश करती और संव्याप्त होती है, प्राण चूँकि एक प्रकार की विद्युत शक्ति है, इसलिए सविता देव का स्वरूप भी प्राणमय कोश में विद्युत रूप में ही रहता है। भावना करते हैं कि सविता की विद्युत शक्ति काया में संव्याप्त बिजली के साथ मिलकर उसकी क्षमता को असंख्य गुना बढ़ा देती है। सारी प्राण शक्ति विद्युत से भरी जाती है और उसकी स्थिति विद्युत पुंज एवं विद्युत पिंड जैसी बन जाती है। अध्यात्म शास्त्रों में प्राण विद्युत को तेजस् कहा गया है। साधक ध्यान करता है कि मेरे कण-कण में, नस-नस में, रोम-रोम में सविता से अवतरित विशिष्ट विद्युत शक्ति का प्रवाह गतिशील हो रहा है और आत्मसत्ता प्राण विद्युत से ओत-प्रोत एवं आलोकित हो रही है। यह दिव्य विद्युत प्रतिभा बनकर व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाती है। अपने पराक्रम और साहस का जागरण तथा दूसरों को उच्चस्तरीय सहयोग, प्रोत्साहन दे सकना इसी बढ़ी हुई प्राण विद्युत के सहारे सहज संभव हो जाता है।

प्राणमय कोश ही ध्यान-धारणा के समय अपने प्राण में सविता प्राण की प्रचुर मात्रा भरती और बढ़ती जाने की आस्था जमाई जाती है।

यह कल्पना की उड़ान नहीं, वरन् एक सुनिश्चित यथार्थता है। यदि इस भावना के साथ श्रद्धा का समुचित समावेश हो तो साधकसहज ही अपने में प्राण तत्त्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता जाएगा।

धारणा का अंतिम चरण 'जागृत' आत्म संकेत के साथ पूरा किया जाता है। निर्देश है-"प्राणमय कोश जागृत, मूलाधार चक्र जागृत, प्राण विद्युत जागृत, प्रतिभा जागृत, पराक्रम जागृत, साहस जागृत।" इन्हें शब्दों के रूप में ही दुहरा नहीं देना चाहिए, वरन समग्र निष्ठा के साथ यह अनुभव करना चाहिए कि सचमुच ही वे सभी जागृत हो चलें जिनके संबंध में ये निर्देशन किए गए हैं।

ध्यान करें-शरीर विद्युत संचार का केंद्र मूलाधार चक्र, सविता देवता का प्रकाश नुकीले किरण पुंज के रूप में प्रविष्ट होता है। प्रतिक्रिया दिव्य प्राण विद्युत की प्रचुर उत्पत्ति हो रही है, सारे शरीर में उसका संचार होता है, प्राण तेजस् कण-कण को संस्कारित कर रहा है। अंतःकरण में तेजस्विता, प्रतिभा, साहस के उभार एवं संचार की अनुभूति होती है। आदर्शों के लिए कुछ भी कर-गुजरने के अनुपम साहस का स्पष्ट बोध होता है।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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