आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणाश्रीराम शर्मा आचार्य
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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....
२. (ग) मनोमय कोश
मनोमय कोश में अकेला मन नहीं, वरन् मन, बुद्धि और चित्त तीन का संगम है। अंत:करण में इनके अतिरिक्त एक चौथा घटक 'अहंकार' भी आता है। यह विज्ञानमय कोश का भाग गिना गया है। यहाँ अहंकार का अर्थ घमंड नहीं, वरन् स्वानुभूति है, जिसे अंग्रेजी में 'ईगो' कहते हैं।
मन कल्पना करता है और बुद्धि विवेचना करती और निर्णय पर पहुंचती है। चित्त में अभ्यास के आधार पर वे आदतें बनती हैं, जिन्हें संस्कार भी कहा जाता है। इन तीनों का मिला हुआ स्वरूप मनोमय कोश है। सामान्यतया मस्तिष्कीय संस्थान की चेतन-अचेतन प्रवृत्तियों के समन्वय को मनोमय कोश कहा जा सकता है। चेतना का यह सारा परिकर शिर की खोपड़ी के सुरक्षित दुर्ग में स्रष्टा ने बहुत ही समझ-बूझ के साथ सँभाल कर रखा है।
इसका प्रवेश द्वार आज्ञाचक्र माना गया है। इसे दोनों भृकुटियों के मध्य भाग में माना गया है। इसे तृतीय नेत्र भी कहा गया है। शंकर एवं दुर्गा की प्रतिमाओं में तीसरे नेत्र का चित्रण इसी स्थान पर किया जाता है। तृतीय नेत्र से तात्पर्य दूरदर्शिता से है। प्रायः लोग अदूरदर्शी होते हैं। तनिक से प्रत्यक्ष लाभ के लिए परोक्ष की भारी हानि करते हैं। तात्कालिक तनिक से लाभ के लिए अवांछनीय कार्य करते और मर्यादाएँ तोड़ते हैं, फलस्वरूप उसके चिरकाल तक कष्ट देने वाले दुष्परिणाम भुगतते हैं। दूरदर्शिता मनुष्य को किसान, विद्यार्थी, माली, पहलवान, व्यापारी आदि के समान बुद्धिमान बनाती है जो आरंभ में तो कष्ट सहते हैं, पर पीछे महत्त्वपूर्ण लाभ उठाते हैं। यह दूरदर्शिता यदि किसी को उपलब्ध हो सके तो वह जीवन संपदा का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की योजना बनाएगा और इस सुरदुर्लभ अवसर का समुचित लाभ उठाकर धन्य बनेगा।
शंकर जी के चित्रों में तीसरा नेत्र दिखाया जाता है। कथा है कि उन्हें काम-विकार ने पथ-भ्रष्ट करने का प्रयत्न किया था। उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला और उस विकार को जलाकर भस्म कर दिया। इस अलंकार का भावार्थ इतना ही है कि अदूरदर्शिता के कारण जो बात बड़ी आकर्षक-लुभावनी लगती है, वही विवेकशीलता की कसौटी पर कसने से विष-तुल्य हानिकारक लग सकती है। जब किसी बात की, वस्तु की हानि स्पष्ट हो जाय तो उसके प्रति घृणा का उभरना और परित्याग करना स्वाभाविक है। जिस प्रकार शिवजी ने कामदेव को तृतीय नेत्र के सहारे जला कर अपने ऊपर बरसने वाली विपत्ति से छुटकारा पा लिया था, उसी प्रकार जिस किसी को भी यह दूरदर्शिता प्राप्त होगी, वह अवांछनीय आकर्षणों से आत्मरक्षा करके उज्ज्वल भविष्य की संरचना कर सकेगा। आमतौर से यह तृतीय नेत्र बंद एवं प्रसुप्त रहता है। उसका जागरण एवं उन्मीलन करना मनोमय कोश की ध्यान-धारणा का उद्देश्य है। यह देखने में छोटी बात लगती है, पर वस्तुतः है इतनी बड़ी कि उसके सत्परिणामों को ध्यान में रखने से इसे दैवी सिद्धि से किसी भी प्रकार कम नहीं माना जा सकता।
आज्ञाचक्र की संगति इसे शरीर शास्त्री आप्टिक कियाज्मा, पिट्यूटरी एवं पीनियल ग्रंथियों के साथ मिलाते हैं। यह ग्रंथियाँ भ्रूमध्य भाग की सीध में थोड़ी गहराई में हैं। इनसे स्रवित होने वाले हारमोन समस्त शरीर के अति महत्त्वपूर्ण मर्मस्थलों को प्रभावित करते हैं। अन्यान्य ग्रंथियों के स्रावों पर भी नियंत्रण करते हैं। इनकी विकसित एवं अविकसित स्थिति का पूरे व्यक्तित्व पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया इन रहस्यमयी ग्रंथियों और उनके उत्पादनों को अति महत्त्वपूर्ण मानते हुए भी मानवी नियंत्रण के बाहर समझा जाता है। ऐसा कोई उपाय अभी हाथ नहीं लगा है कि इन ग्रंथियों की स्थिति को संभाला, सुधारा जा सके। यदि वैसा उपाय हाथ लगा होता तो सचमुच ही मनुष्य को अपने हाथों अपना व्यक्तित्व, भाग्य और भविष्य बनाने की कुंजी हाथ लग जाती।
आत्मसत्ता के विज्ञानवेत्ता, सूक्ष्मदर्शी योगीजनों ने यह जाना है कि मस्तिष्क ही नहीं शरीर के किसी भी अवयव पर, मन:संस्थान के किसी भी केंद्र पर प्रभाव डाला जा सकता है और उसमें अभीष्ट परिवर्तन हो सकता है। यह कार्य केंद्रित संकल्प-शक्ति के प्रयोग एवं प्रहार की क्षमता उपलब्ध होने से सरल एवं संभव हो सकता है। इस प्रकार के नियंत्रण एवं प्रयोग की क्षमता ध्यान योग के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है। बिखरी विचार शक्ति फैली हुई भाप, धूप एवं बारूद की तरह है। बिखराव की स्थिति में इन तीनों ही वस्तुओं का प्रभाव नगण्य होता है, किंतु जब इन्हें केंद्रित करके एक लक्ष्य विशेष पर केंद्रित किया जाता है तो उनकी सामर्थ्य असंख्य गुनी प्रचंड होती देखी गई है। भाप से रेल का इंजन चलता है, प्रेसर कुकर जैसे छोटे-छोटे प्रयोग तो कितने ही होते रहते हैं। कुछ इंच क्षेत्र में फैली हुई धूप को आतिशी शीशों पर केंद्रित करने से आग जलने लगती है। तनिक-सी बारूद कारतूस में केंद्रित होकर और बंदूक की नली द्वारा दिशा विशेष में फेंकी जाने पर वज्रपात जैसा प्रहार करती एवं निशाने को धराशायी बनाती देखी जाती है। ध्यान योग द्वारा विचार-शक्ति को केंद्रित करके जब किसी लक्ष्य विशेष पर प्रयुक्त किया जाता है तो उसके परिणाम भी वैसे ही होते हैं जैसे कि ध्यान योग के माहात्म्य में अध्यात्म शास्त्रवेत्ताओं ने विस्तारपूर्वक बताए हैं।
ध्यानयोग की सहायता से केंद्रीकृत संकल्प शक्ति को अपने शरीर के किसी भी अवयव पर प्रयुक्त करके उसकी दुर्बलता एवं रुग्णता का निराकरण किया जा सकता है, उसे अधिक बलिष्ठ एवं सक्षम बनाया जा सकता है। मनोमय कोश के क्षेत्र में ध्यान-धारणा का प्रयोग करके समूचे मस्तिष्क क्षेत्र की बुद्धिमत्ता एवं प्रखरता विकसित की जा सकती है। उसके किसी केंद्र विशेष में सन्निहित प्रसुप्त क्षमताओं को उभारा और बढ़ी हुई विकृतियों को शांत किया जा सकता है। जिस प्रकार इंजेक्शन की पतली एवं तीक्ष्ण सुई शरीर के किसी भी भाग में चुभाई जा सकती है, उसी प्रकार ध्यानयोग द्वारा केंद्रीकृत संकल्प शक्ति का इस प्रयोजन के लिए सफलतापूर्वक उपयोग हो सकता है, जिसे आमतौर से मानवी नियंत्रण से बाहर माना जाता है। इस सफलता को दैवी एवं अति मानवी कहा जाता है, क्योंकि इसके सहारे वे कार्य हो सकते हैं, जिन्हें साधारणतया दैवी अनुग्रह से ही संभव माना जाता है।
मनोमय कोश पूरी विचारसत्ता का क्षेत्र है। इसमें चेतन, अचेतन एवं उच्च चेतन की तीनों ही परतों का समावेश है। विचार शक्ति का केंद्र यों तो मस्तिष्क को ही माना गया है, पर वस्तुतः वह शरीर के प्रत्येक क्षेत्र में फैली हुई है। मस्तिष्क अपनी प्रेरणा से उसे ही उत्तेजित करता और विभिन्न प्रकार के काम लेता है। मस्तिष्कीय प्रेरणा और अवयवों में फैली चेतना के बीच जब उपयुक्त तालमेल होता है तो उस पारस्परिक सहयोग से मस्तिष्क की इच्छा-आकांक्षा को अवयवों का अंतराल सहज ही पूरा करने लगता है, और मनोवांच्छाओं की पूर्ति का बहुत बड़ा आधार बन जाता है, किंतु यदि असमंजस्य-असहयोग रहा तो फिर इच्छा उठते और आकांक्षा रहते हुए भी अवयवों का सहयोग नहीं मिलता। अपना ही शरीर अपने काबू में न होने की कठिनाई हर किसी के सामने हैं। दूसरे कहना न मानें, यह बात समझ में आती है, पर अपना शरीर तो मस्तिष्क का वशीवर्ती है फिर उस पर अपना शासन क्यों नहीं चलना चाहिए? इस विडम्बना का कारण पारस्परिक तालमेल का अभाव है। नियंत्रणकर्ता की दुर्बलता का अनुचित लाभ उठा कर कर्मचारी भी तो अनुशासनहीनता फैलाते हैं। ठीक यही स्थिति अपने शरीर और
मन की होती है। इस स्वेच्छाचारी उच्छृखलता को समाप्त करके सुव्यवस्थित अनुशासन स्थापित करने का कार्य मनोमय कोश की साधना द्वारा संपन्न होता है। आत्म-विजय को विश्व-विजय के समतुल्य माना गया है। मनोनिग्रह को योग-शक्ति की आत्मा कहा जाता है। इंद्रिय निग्रह कर सकने वाले को चमत्कारी योगी-सिद्ध कहते हैं। भुजाओं के बल से अनेक प्रकार के पराक्रम सधते और पुरुषार्थ बनते हैं। धन-बल से कितनी सुविधाएँ खरीदी जा सकती हैं, यह सभी जानते हैं। मनोबल के चमत्कार इन सबसे ऊँचे हैं। सर्वतोमुखी मनोबल मनोमय कोश की साधना से संपन्न होता है। मस्तिष्क के किसी केंद्र विशेष को ही भौतिक प्रयोजनों के लिए प्रशिक्षित करना ही अभीष्ट हो तो बात दूसरी है। यह कार्य स्कूली प्रशिक्षण से या उस विषय के जानकारों से सीखे जा सकते हैं, किंतु मनःसत्ता को उच्चस्तरीय प्रगति तक पहुँचाना मनोमय कोश की साधना जैसे सूक्ष्म प्रयोगों से ही संभव हो सकता है।
अन्नमय कोश का शरीर बल, प्राणमय कोश का प्रतिभा बल जीवन को सुखी, समुन्नत बनाने में कितना सहायक सिद्ध होता है, इसे सभी जानते हैं। मनोमय कोश को परिष्कृत करके प्राप्त किए जाने वाले उच्चस्तरीय मनोबल का प्रभाव और भी अधिक बढ़ा-चढ़ा है। साधारणतया मनोबल साहस के अर्थ में प्रयुक्त होता है, पर उसका वास्तविक स्वरूप समग्र काय-कलेवर में संव्याप्त मनःसत्ता को उत्कृष्ट एवं प्रखर बना देने के रूप में समझा जाना चाहिए। इस विकास को व्यक्तित्व के अंतराल का ऐसा उभार कह सकते हैं जिसके कारण मनुष्य अपने आप में सुसंस्कृत और दूसरों की दृष्टि में दिव्य-चेतना संपन्न समझा जाता है। प्रत्यक्ष शरीर से अप्रत्यक्ष शरीरों का महत्त्व क्रमशः बढ़ता ही जाता है। अन्नमय, प्राणमय के आगे की सूक्ष्म काया मनोमय है, उसकी साधना को शारीरिक समर्थता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। शरीर को वाहन और मन को शासक होने की वस्तुस्थिति को जो समझते हैं, उनके लिए मनोमय कोश की प्रगति और उसके लिए की जाने वाली ध्यान-धारणा का महत्त्व भी अविदित नहीं होना चाहिए।
(ठ) ध्यान करें-शरीर की हर इकाई-हर कोशिका में व्याप्त मनःतत्त्व, आकांक्षा के चिंतन सूत्रों की अनुभूति करें। उनका संबंध मस्तिष्क से, भ्रूमध्य स्थित आज्ञाचक्र से। अनुभव करें कि वहाँ एक दिव्य भंवर जिससे उठती विचार तरंगें सारे संस्थान में दौड़ रही हैं।
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- ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
- पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
- गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
- साधना की क्रम व्यवस्था
- पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
- कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
- ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
- दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
- ध्यान भूमिका में प्रवेश
- पंचकोशों का स्वरूप
- (क) अन्नमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ख) प्राणमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ग) मनोमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (घ) विज्ञानमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- (ङ) आनन्दमय कोश
- सविता अवतरण का ध्यान
- कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
- कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
- जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
- चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
- आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
- अंतिम चरण-परिवर्तन
- समापन शांति पाठ