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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

२. (घ) विज्ञानमय कोश


अन्नमय, प्राणमय और मनोमय, ये तीन कोश प्रकृति परक हैं। इनका संबंध काय-कलेवर से है। यों यह तीनों ही चेतन है, पर इनकी चेतना शरीर के साथ गुंथी हुई है, पंचभूतों के समन्वय से ही इनका अस्तित्व है। स्थूल पंचतत्त्वों की रासायनिक एवं आणविक प्रक्रिया के आधार पर चेतना का जो अंश गतिशील रहता है, उसी की झाँकी इन तीन कोशों में मिलती है। यह पदार्थों की मात्रा तथा स्तर के आधार पर प्रभावित होते हैं। आहार न मिलने से अन्नमय कोश लड़खड़ा जाता है। उत्साहपूर्वक अनुकूल परिस्थितियाँ न मिलने से प्राण शिथिल पड़ जाता है। मस्तिष्क संस्थान में नशा, मूर्छा नस्य (क्लोरोफॉम) आदि आघात एवं स्थानीय व्याधि खड़ी हो जाने से चिंतन प्रक्रिया ठप्प अथवा विकृत हो जाती है। उत्तम आहार से शरीर, प्रोत्साहन से प्राण एवं प्रशिक्षण से मन का विकास होता है। इससे स्पष्ट है कि यह तीनों ही शरीर सचेतन होते हुए भी तत्त्वगत प्रकृति पर निर्भर हैं। इंद्रियाँ इन्हीं तीनों के साथ जुड़ी हुईं हैं। वे पदार्थों एवं परिस्थितियों के अनुरूप सुख-दुःख अनुभव करती हैं। सुविधा की दृष्टि से यदि इन्हें स्थूल संज्ञा दी जाय तो भी कोई हर्ज नहीं। मरने के बाद प्रेत शरीर प्राणमय कोश का बना हुआ होता है। इससे उच्च स्थिति की आत्माएँ जिन्हें पितर कहा जाता है, मनोमय कोश के आधार पर बनते हैं। प्रेत निम्नकोटि के, उद्धत प्रकृति के होते और अशांत रहते हैं जब कि पितर दया, करुणा, विवेक युक्त होते हैं और मैत्री, उदारता एवं सहकारिता का परिचय देते हैं। इन तीनों ही शरीरों का परिचय यंत्रों, इंद्रियों के सहारे किसी न किसी प्रकार मिलता रहता है। पंच तत्त्वों से तो प्रत्यक्ष शरीर बनता है, पर उनकी सूक्ष्म तन्मात्राएँ प्राणमय और मनोमय शरीरों की संरचना करती हैं। इन्हीं कारणों से उपर्युक्त तीनों शरीरों को प्रकृति परक माना गया है और उनकी चेतना को स्थूल वर्ग का गिना गया है।

सूक्ष्म वर्ग के दो शरीर है-विज्ञानमय और आनंदमय। इनका संबंध सूक्ष्म जगत से और ब्रह्म-चेतना से है। विज्ञानमय कोश की संरचना सूक्ष्म जगत से आदान-प्रदान कर सकने के उपयुक्त है। उसमें भाव संवेदनाओं की प्रधानता है। प्रेम तत्त्व की रसानुभूति सर्वोपरि है। इतनी सरसता जीवन के अन्य किसी पक्ष में, संसार की अन्य किसी विभूति में नहीं है। इसी से प्रेम को परमेश्वर कहा गया है। यह प्रेम तत्त्व अनेक रूपों में प्रकट होता रहता है। घनिष्ठता, आत्मीयता, एकता, ममता, वात्सल्य, करुणा, सेवा, उदारता आदि अनेकों रूप उसके हैं। व्यक्ति और परिस्थिति के अनुरूप उसके प्रवाह एवं स्वरूप कई प्रकार के देखने में आते हैं। पत्नी, पुत्री, भगिनी, जननी के प्रति प्रेम तत्त्व की मात्रा समान होने पर भी उसके व्यवहार में अंतर स्पष्ट देखा जा सकता है। सुखी के प्रति प्रसन्नता और दु:खी के प्रति करुणा व्यक्त करने में भी व्यवहार का अंतर रहता है, मूलत: वह सहानुभूति की ही संवेदना होती है। प्रेम का स्थान हृदय माना गया है। सहृदयता, सज्जनता की विवेचना करते हुए उसे हृदय से संबंधित कहा जाता है। यही हृदय एवं भाव संस्थान अध्यात्म शास्त्र में विज्ञानमय कोश कहा गया है।

व्यक्ति से व्यक्ति का संबंध बाजारू स्तर पर तो स्वार्थों के आदान-प्रदान पर टिका होता है, किंतु घनिष्ठ आत्मीयता आंतरिक संवेदनाओं के आधार पर जुड़ती है। वेश्या की घनिष्ठता अर्थ प्रधान है, उसका आरंभ, विकास एवं अंत इसी आधार पर होता है, किंतु माता और संतान के बीच, पति और पत्नी के बीच जो सघनता है, उसमें निस्वार्थ आत्मीयता का ही गहरा पुट रहता है।

भाव संवेदना इसी का नाम है। लोक-व्यवहार में तथा स्वार्थकौशल में जिस शिष्टाचार एवं चापलूसी का परिचय दिया जाता है, वह तो व्यावहारिक चतुरता भर है। आत्मीयता इससे कहीं गहरी वस्तु है। उसका उद्गम हृदय में होता है। इसलिए उसे प्रेम की संज्ञा दी जाती है और परमेश्वर के समतुल्य पवित्र एवं उत्कष्ट गिना जाता है। यहाँ एक बात और ध्यान रखने की है कि 'हृदय' शब्द से तात्पर्य अध्यात्म शास्त्र में 'रक्त-संचार' करने वाली थैली से नहीं, वरन् भाव संस्थान से है। चूँकि विज्ञानमय कोश का केंद्र काया में हृदय स्थान के इर्द-गिर्द माना गया है, इसलिए उसे 'हृदय' की संज्ञा दी गई है। 'प्रकाश' शब्द का भी अध्यात्म शास्त्र में 'ज्ञान' अर्थ होता है। रोशनी या चमक नहीं। अस्तु किसी को इन शब्दों के कारण भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए और न तो रक्त-संचार की थैली को भाव संस्थान-हृदय समझना चाहिए और न 'प्रकाश' को चमक। इन्हें अधिक से अधिक प्रतीक, प्रतिमा या प्रतिनिधि की संज्ञा दी जा सकती है।

विज्ञानमय कोश का स्थान हृदय चक्र माना गया है। इसका दूसरा नाम ब्रह्म-चक्र भी हैं। ब्राह्मी चेतना की ओर उसका प्रवाह रहने से ब्रह्म-चक्र नाम देना उपयुक्त ही है। भक्ति भाव से परमेश्वर को प्राप्त किया जाता है। जीव और ब्रह्म की एकता बढ़ाने में यह भक्ति ही प्रधान भूमिका बनाती है। भक्ति का प्रारंभिक रूप श्रद्धा है। श्रद्धा को जड़ और भक्ति को तना कहा जा सकता है। श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार को श्रद्धा कहते हैं और करुणा, सेवा, उदारता जैसी कोमल भाव संवेदनाओं को भक्ति। यह भक्ति ईश्वर के प्रति भी हो सकती है और उत्कृष्ट आदर्शों के प्रति भी। जहाँ श्रद्धा तत्त्व के लिए उपयुक्त आधार हो वहाँ व्यक्तियों से अथवा पदार्थों से भी भक्ति हो सकती है। गुरुजनों, महामानवों, तीर्थ, देव-प्रतिमा आदि के माध्यम से भक्ति भावना को विकसित करने का अभ्यास किया जा सकता है। ईश्वर भक्ति इसी प्रकार से आरंभ होकर ब्रह्म परायणता तक विकसित होती चली जाती है। श्रद्धा की स्थापना एवं दृढ़ता में विवेक सहायक होता है। पहले यह परख की जाती है कि अमुक व्यक्ति या पदार्थ श्रद्धा के उपयुक्त है या नहीं। परख की कसौटी पर जब उत्कृष्टता का विश्वास हो जाता है तो श्रद्धा जगती और परिपक्व होती है। बिना विचारे भावावेश में, किसी के बहकावे में अथवा देखा-देखी जो लगाव उत्पन्न होता है, उसमें स्थायित्व नहीं होता। प्रामाणिकता के अभाव में तो अंध श्रद्धा ही हो सकती है और उसमें चंचलता एवं अस्थिरता ही बनी रहती है। अंध श्रद्धा से व्यर्थ के अथवा अनर्थ मूलक काम तो हो सकते हैं, किंतु उच्चस्तरीय त्याग, बलिदान कर सकने के लिए प्रामाणिक एवं विवेक सम्मत श्रद्धा ही काम देती है।

प्रेम यों कामुकता और मोहग्रस्तता के आकर्षणों में भी समझा जाता है, पर वस्तुतः उनमें उसकी छाया मात्र होती है। विज्ञानमय कोश के साथ जिस उच्चस्तरीय भाव संवेदना की दिव्य शक्ति जडी रहती है, उसी का नाम पवित्र प्रेम है। उसी को परमेश्वर कहते हैं। रस का समुद्र वही है। श्रद्धा और भक्ति के रूप में उसी का प्रत्यक्ष परिचय मिलता है। श्रद्धा और विश्वास की शक्ति का परिचय हम प्रत्यक्ष प्राप्त करते रहते हैं। उसकी सामर्थ्य सत्य के ही समतुल्य है। रस्सी का साँप, झाड़ी का भूत जैसे भंयकर परिणाम विकृत श्रद्धा के ही हैं। प्रतिमा में देवता का प्रकटीकरण श्रद्धा का ही चमत्कार है। आस्था एवं निष्ठा भी श्रद्धा का ही वह भाग है जो व्यक्तित्व का स्वरूप निर्धारित करता है। गीताकार की वह उक्ति पूर्णतया सत्य है जिसमें कि यो यच्छद्धः एव स' में यह कहा है कि जिसकी जैसी श्रद्धा है वस्तुतः वह वैसा ही है। व्यक्तित्त्व हाड़-मास पर, शिक्षा साधनों पर नहीं, अपने संबंध में अपनी आकांक्षाओं एवं मान्यताओं के संबंध में बनाई गई आस्थाओं, निष्ठाओं एवं विश्वासों पर ही निर्भर रहता है। प्रकारांतर से इस हृदय चक्र को, विज्ञानमय कोश को ही समूचे व्यक्ति का बीजकारण एवं मूल आधार कह सकते हैं। अन्नमय, प्राणमय और मनोमय तो उसके सज्जा-साधन भर हैं।

परिष्कृत विज्ञान-चक्र में उत्पन्न चुंबकत्व ही दैवी तत्त्वों को सूक्ष्म जगत से आकर्षित करने और आत्मसत्ता में भर लेने की प्रक्रियाएँ संपन्न करता है। इसी से भक्ति एवं प्रेम को आत्मिक प्रगति का आधार माना गया है। प्रतिमा भक्ति से, गुरु भक्ति से अभ्यास करते-करते ब्रह्म-भक्ति का लक्ष्य प्राप्त कर सकने की स्थिति बन जाती है। देव शक्तियों से लेकर ब्रह्म प्राप्ति की समस्त सफलताएँ विज्ञानमय कोश की भाव संवेदनाओं के चुंबकत्व पर निर्भर रहती हैं। अनेक प्रकार की सिद्धियाँ एवं विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए जो विविध-विधि अनुष्ठान, उपचार, तप, साधन किए जाते हैं, उनका उद्देश्य साधक की श्रद्धा को परिपक्व करना है। वह जितनी ही प्रगाढ होती जाती है, दिव्य-लोक के अनेकानेक अनुदान, वरदान उसी आधार पर खिंचते, बरसते चले आते हैं। हृदय-चक्र की, विज्ञानमय कोश की प्रखरता ही मनुष्य को, महामानव, सिद्ध पुरुष, ऋषि, देवात्मा एवं परमात्मा की स्थिति तक पहुँचाती है।

प्रत्यक्ष जगत की तरह ही-ठीक उसी के साथ सटा, घुला हुआ सूक्ष्म जगत है। स्थूल जगत की गतिविधियाँ इस सूक्ष्म जगत की हलचलों पर निर्भर रहती हैं। बीज में पूरा वृक्ष, शुक्राणु में पूर्ण प्राणी छिपा रहता है, पर दीखता नहीं। ठीक इसी प्रकार स्थूल जगत का प्राण सूक्ष्म जगत है। आंतरिक आकांक्षाओं के अनुरूप काय-कलेवर की गतिविधियाँ चलती हैं। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म जगत में इस विश्व का भूत और भविष्य विद्यमान रहता है। स्थूल जगत में भी वर्तमान का बहुत ही उथला इंद्रियगम्य भाग भर दिखाई देता है। उसका भी अधिकांश भाग अप्रत्यक्ष ही रहता है। सूक्ष्म जगत एक विशाल समुद्र है। स्थूल जगत को तो उसकी कुछ सामयिक लहरें भर कह सकते हैं। सामान्यतया हमारी गतिविधियाँ तथा जानकारियाँ स्थूल जगत तक ही सीमित रहती हैं, पर यदि विज्ञानमय कोश समर्थ हो तो सूक्ष्म जगत की समस्त हलचलों को देख, समझ सकते हैं तथा भूत एवं भविष्य की परिस्थितियों से अवगत रह सकते हैं। दूरवर्ती एवं अदृश्य को देख सकना भी हमारी दिव्य दृष्टि के लिए संभव हो जाता है। इसी विशिष्ट क्षमता को अतींद्रिय ज्ञान कहते हैं। सिद्ध पुरुषों में उसी स्तर की अनेक अलौकिक विशेषताएँ देखी जाती हैं। वे न केवल सूक्ष्म जगत की परिस्थितियों तथा संभावनाओं को जान ही लेते हैं, वरन् उन्हें प्रभावित करने में भी समर्थ होते हैं। शाप से प्रतिकूल और वरदान से अनुकूल परिस्थितियाँ सामने आती हैं। यह सिद्ध पुरुषों का अपना पुरुषार्थ है जो सूक्ष्म जगत से अपने प्रभावपराक्रम के द्वारा उनने उपार्जित किया होता है।

अपने इस स्थूल जगत के आदान-प्रदान कितने सुखद होते हैं, उस सरसता के प्रति आकर्षित एवं मुग्ध होने के कारण ही जीवात्मा इस मल-मूत्र की गठरी में निर्वाह करने के लिए सहमत हो सका है। मरते समय कोई भी इसे स्वेच्छा से नहीं त्यागना चाहता और मौत से डरता है। यह जड़ जगत से संबंधित पदार्थों और प्राणियों की सुखद प्रतिक्रिया ही है जिसमें रस लेने के लिए आत्मा ने जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करते रहना स्वीकार किया है। सूक्ष्म जगत की उपलब्धियाँ और अनुभूतियाँ इससे असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी हैं। उससे जिनका संबंध है, जो उसे देखते, अनुभव करते हैं, वे स्वर्गलोक में रहने वाले देवताओं की तरह सुखी, संतुष्ट रहते हैं। उनके पास इतनी विभूतियाँ होती हैं कि अपनी आवश्यकता से अधिक देखकर उन्हें वे दूसरे जरूरतमंदों में बाँटते, बिखेरते, महानतम दानवीरों की तरह स्वयं सुखी रहते और दूसरों को सुखी बनाते हैं।

विज्ञानमय कोश का केंद्र हृदय-चक्र है। इस शक्ति भंवर में, समर्थ चक्रवात में निवास करने वाली आत्म चेतना के लिए यह सरल पड़ता है कि वह ब्रह्म-चेतना के साथ अपनी विशेष स्थिति के कारण घनिष्ठता स्थापित कर ले। इस सफलता के सहारे मिलने वाली उपलब्धियाँ इतनी गरिमामयी हैं कि उन्हें पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता है।

ध्यान करें-शरीर सूक्ष्म तत्त्व से बना तेज पुंज, हृदय क्षेत्र में तेजोवलय जैसी घनी भँवर, उससे उठती तरंगें शरीर में तरंगित होती हैं और चारों ओर प्रकाश के समूह में, अंतरिक्ष में फैल जाती हैं।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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