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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

३. (ख) कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण


मंथन से दिव्य-ज्योति का प्रकटीकरण-

कुंडलिनी जागरण की ध्यान-धारणा का प्रथम चरण है-मंथन। मंथन से ऊर्जा की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि का तथ्य सर्वविदित है। हाथों को रगड़ते हैं तो हथेलियाँ गर्म हो जाती हैं। दही को मथने से वह गरम होता है और उस बढ़ी हुई गर्मी से पिघल कर घी ऊपर आ जाता है। बिजली का उत्पादन रगड़ से होता है। आकाश में चमकने वाली बिजली भी बादलों की हवा से रगड़ का परिणाम है। अंतजर्गत का मंथन करने से ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। प्राणायाम क्रिया में श्वास-प्रश्वास के माध्यम से यह मंथन कर्म ही संपन्न होता है। रक्त के आवागमन को भी मंथन कहा जा सकता है, जिससे शरीर का तापमान स्थिर रहता है और काया का सारा क्रिया-कलाप विधिवत् चलता रहता है।

कुंडलिनी प्राण ऊर्जा मनुष्य को जन्मजात रूप से ही प्रचुर परिमाण में उपलब्ध है, किंतु वह प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। . गुप्त सर्पिणी उसे इसीलिए कहा गया है कि वह सर्पिणी के समान तीक्ष्ण होते हुए सोई स्थिति में, सो भी नीचे मुँह किए पड़ी रहती है। नीचा मुख किये रहने से तात्पर्य है-निकृष्ट पथगामी, पतनोन्मुख। प्राय: हमारी शक्ति कामवासना जैसे इंद्रिय छिद्रों में होकर बहती रहती और ऐसे कामों में लगती है जिन्हें आरंभ में आकर्षक किंतु अंत में दुःखद परिणाम उत्पन्न करने वाला कहा जा सकता है। जागृत कुंडलिनी ऊर्ध्वमुखी और ऊर्ध्वगामी होती है, इसका सीधा तात्पर्य इतना ही है कि पतन रुकता और उत्थान आरंभ होता है।

सोते हुए को जगाने के लिए उसे हिलाना, झकझोरना पड़ता है। यह मंथन क्रिया है। रतिकर्म में भी यही होता है। उसकी प्रतिक्रियाएँ, उत्तेजना, सरसता और गर्भ स्थापना के रूप में प्रस्तुत होती हैं।

समुद्र मंथन का सुविस्तृत वर्णन पुराणों में दिया हुआ है। देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मथा था और उस मंथन कर्म के पुरुषार्थ का प्रतिफल १४ महारत्नों के रूप में प्राप्त किया था। आत्मसत्ता भी एक समुद्र है। इसमें ब्रह्म को देव और प्रकृति को दैत्य कह सकते हैं। दोनों के सम्मिलित पुरुषार्थ का प्रतिफल भौतिक और आत्मिक ऋद्धि-सिद्धि के रूप में सामने आता है। जीवन एक समुद्र है, इसे यदि ऐसे ही पड़ा रहने दिया जाय तो खारी-निरर्थक जलराशि से अधिक उसका कोई मूल्य न होगा, किंतु यदि उसे मथा जाय, उसकी प्रसुप्त-मूर्च्छित विशेषताओं को ऊपर उभारा जाय तो सामान्य परिस्थितियों में उत्पन्न हुआ, सामान्य साधनों से गुजारा करने वाला मनुष्य भी उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँच सकता है। ऐतिहासिक महामानवों से लेकर अविज्ञात श्रेष्ठ सत्पुरुषों तक की देवात्माएँ अपने जीवन को धन्य बनाने और असंख्यों को तारने में समर्थ हुई हैं। इसका कारण उनकी शारीरिक, मानसिक विशेषताएँ अथवा भौतिक सविधाएँ नहीं रहीं, वरन् आंतरिक विशेषताओं के उभार- जागरण ने ही चमत्कार उत्पन्न किए हैं। इसके लिए आत्मशोधन एवं आत्मनिर्माण के उभयपक्षीय प्रबल पुरुषार्थ करने पड़ते हैं। इन दोनों प्रयासों की तुलना मथानी की रस्सी आगे-पीछे ले जाने और दधि मंथन करने की तरह समझी जा सकती है। यही जीवन मंथन है । दूध में छिपे हए घी को मंथन के द्वारा उभारने की तरह आत्मा की महती विशेषताओं को ऊपर ले आने की चेष्टा, इतनी सुखद परिणाम उत्पन्न करती है, जिसकी तुलना पौराणिक समुद्र मंथन से कम महत्त्वपूर्ण किसी जीवन साधक के लिए सिद्ध नहीं हो सकती।

मानवी काया के सूक्ष्म, स्थूल और कारण शरीरों में अग्नि तत्त्व की प्रखरता संव्याप्त है। शक्ति इसी का नाम है। इच्छा शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति के रूप में उसी के अनेकानेक चमत्कार देखे जाते हैं और उन्हीं के आधार पर व्यक्तित्व का वर्चस्व आँका जाता है। इस अग्नि एवं शक्ति को अस्पर्ध्य बनाए रहा जाय तो वह अविज्ञात स्थिति में ही पड़ी रहेगी। उसके अस्तित्व तक का पता नहीं चलेगा, किंतु यदि उसे उभारा जा सके तो फिर उस चिनगारी को गगनचुंबी दावानल के रूप में प्रभाव और प्रकाश का परिचय देते हुए देखा जा सकता है। प्रबल पुरुषार्थ से इस जीवन अग्नि को उभारते हुए असंख्य प्रगतिशीलों को देखा जाता है। साधना भी उच्चकोटि का पुरुषार्थ है। आत्मिक क्षमताओं को प्रबल बनाने में तो इसी का सबसे अधिक उपयोग होता है। कुंडलिनी जागरण के प्रथम चरण में ध्यान धारणा के आधार पर जो मंथन क्रिया संपन्न की जाती है, उससे तीनों शरीरों में छिपी हई अग्नियाँ-शक्तियाँ उभर कर आती हैं। इसी तथ्य को ध्यान के समय संकल्प-बल से प्रत्यक्ष किया जाता है। फलतः आत्मसत्ता में उभरती हुई अग्नि को, शक्ति को, जीवन व्यवहार के अनेक क्षेत्रों में अपना प्रभावपरिचय देते हुए भी प्रत्यक्ष देखा जाता है। साधना जैसे-जैसे परिपक्व होती जाती है, प्रखरता को भी उसी अनुपात से बढ़ते हुए देखा जा सकता है। यही अग्नि मंथन, शक्ति मंथन है।

यज्ञ के लिए प्राचीन काल में पवित्र अग्नि अरणि मंथन से ही उत्पन्न की जाती थी। लकड़ियों को परस्पर रगडने से ही यह अग्नि प्रकट होती है। अंत:मंथन को भी अरणि मंथन के समतुल्य गिना जा सकता है। यह प्राण मंथन भी है। शरीर का व्यायाम करने पर उसका तापमान बढ़ते और परिपुष्ट बनते देखा जा सकता है। अंत:शक्ति का, प्राण शक्ति का मंथन-व्यायाम भी साधक को हर दृष्टि से सुयोग्य समर्थ बनाता चला जाता है।

मंथन के सुनिश्चित सत्परिणाम सर्वत्र देखे जाते हैं। मूलाधार मंथन से, जीवन मंथन का आरंभ होता है और उससे दिव्य क्षमताओं की प्रसुप्ति महान जागृति में परिणत होती चली जाती है। सुना गया है कि बुझे हुए दीपक भी दीपक राग के स्वर प्रवाह से जल उठते हैं। यह मान्यता भले ही संदिग्ध हो, पर यह सुनिश्चित तथ्य है कि ध्यान -धारणा से आरंभ होकर सर्वतोमुखी अंत:मंथन के फलस्वरूप जीवन की दीपशिखा जागृत होती है। अरणि मंथन की तरह ही जीवनज्योति प्रज्वलित होती है। इस प्रकटीकरण से ठंडक में गर्मी और तमिस्रा में ज्योति का अभिनव आविर्भाव होता है। यही है कुंडलिनी जागरण का प्रथम चरण-मंथन और उसके फलस्वरूप दिव्य ज्योति का अवतरण-प्रकटीकरण।

ध्यान करें-मूलाधार क्षेत्र में सविता शक्ति प्रविष्ट होकर प्रकाश के तीव्र स्पंदन पैदा कर रही है, यह स्पंदन शक्ति क्षेत्र को मथ रहे हैं, ऊष्मा बढ़ रही है, शक्ति की ज्वालाएँ, शिखाएँ यज्ञाग्नि की तरह बढ़ रही हैं, लहरा रही हैं।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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