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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

३. (ग) जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन

 


आवश्यक नहीं कि प्रतिभा-क्षमता का उपयोग श्रेष्ठ कामों में ही हो। बहुधा उसका अपव्यय एवं दुरुपयोग भी होता है। शरीरबल, बुद्धि-बल, कौशल-बल, साधन-बल कितनों के ही पास होता है, पर वे उसका सदुपयोग न करके ऐसे कार्यों में दुरुपयोग करते हैं, जो तत्काल तो सुखद प्रतीत होते हैं किंतु अंततः दु:खद दुष्परिणाम से जीवन को नरकमय बना देते हैं। ऐसे लोग स्वयं कष्ट पाते और दूसरों को दुखी करते देखे गए हैं। दुर्व्यसनी, कुकर्मी, दुष्ट, दुराचारी अपनी सामर्यों का दुरुपयोग करते हुए सर्वत्र देखे जाते हैं। असुरता में सामर्थ्य तो होती है, पर वह कुमार्गगामी होने से दुष्परिणाम ही उत्पन्न करती रहती है। ऐसे लोगों का शक्तिवान होना निरर्थक ही नहीं दुर्भाग्य पूर्ण भी सिद्ध होता है। इससे तो कहीं अच्छा होता ऐसे लोग शक्तिहीन, साधनहीन ही बने रहते। तब वे अभावजन्य कठिनाइयाँ ही अनुभव करते, दुष्टता की प्रताड़ना से तो बचे रहते।

समर्थता का प्राप्त होना सौभाग्यजनक तब है,जब वह श्रेष्ठ सत्कर्मों में लगे, उच्च ऊर्ध्वगामी प्रयोजनों में संलग्न हो। यह तथ्य भौतिक और आत्मिक क्षेत्रों में समान रूप से लागू होता है। भौतिक बलों का प्रवाह उत्कृष्टता की दिशा में चल पड़े, इसी को कुंडलिनी जागरण की ध्यान-धारणा के द्वितीय चरण में 'ऊर्ध्वगमन' संज्ञा दी गई है। रावण, कंस, हिरण्यकश्यपु, भस्मासुर, वृत्तासुर आदि ने भी दिव्य सामर्थ्य तो तपश्चर्या करके ही प्राप्त की थी, पर वे उसका दुरुपयोग करने लगे और दुर्गति के गर्त में जा गिरे। योग और तप की शक्ति साधना से आत्मिक सामर्थ्य तो बढ़ती है, पर उसका प्रतिफल अशक्त रहने से भी अधिक कष्टकारक होता है। कुंडलिनी जागरण में इस तथ्य को आरंभ से ही ध्यान में रखा जाता है और जागरण से उत्पन्न प्रवाह को ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रयास किया जाता है। यों ज्योति का-ज्वाला का-सहज प्रवाह ऊर्ध्वगामी ही होता है, पर दुर्बुद्धि उसे अधोगामी बनाने में भी नहीं चूकती। इस संदर्भ में पूरीपूरी सतर्कता रखनी पड़ती है। आत्मजागृति का, आत्मज्योति का भी अध:पतन में उपयोग हो सकता है। तांत्रिक, कापालिक, अघोरी प्रायः ऐसा ही करते भी हैं। असुरता इसी कारण बदनाम हुई अन्यथा शक्ति संचय तो उस वर्ग के लोग भी इसी आधार पर करते हैं। डाकू भी 'साहस' का आध्यात्मिक गुण अपना सकने पर ही अपने क्रूर कर्म में सफल होते हैं।

द्वितीय चरण की ध्यान-धारणा ऊर्ध्वगमन है। ध्यान किया जाता है कि मूलाधार से जागृत हुई कुंडलिनी ज्योति ऊपर उठती है। मेरुदंड मार्ग से आगे बढ़ती है और सुषुम्ना पथ को पार करते हुए सहस्रार चक्र से जा मिलती है। इसे महामिलन कहा जाता है। मूलाधार शक्ति को महासर्पिणी और सहस्रार आलोक को महासर्प कहा गया है। उन्हें महाकाली और महाकाल भी कहते हैं। इन दोनों के संयोग से पति-पत्निी मिलन की तरह दोनों की अपूर्णता दूर होती है। दो विद्युत धाराओं के मिलने से उत्पन्न शक्ति प्रवाह का परिचय प्रत्यक्ष मिलने लगता है।

जागृत कुंडलिनी की शक्तिधारा को ऊर्ध्वगमन की दिशा देना साधक का काम है। मेरुदंड के भीतर की पोल सुषुम्ना मार्ग से यह ऊपर चढ़ती है और सनसनाती हुई ऊपर उठती और ब्रह्मरंध्र अवस्थित सहस्रार में जा मिलती है। इस ऊर्ध्वगमन का परिचय रीढ़ के इर्दगिर्द खुजली, सरसराहट, फड़कन, रोमांच आदि के रूप में भी मिलता है। चूंकि कुंडलिनी स्थूल शरीर की नहीं सूक्ष्म शरीर की शक्ति है, इसलिए उसकी गतिविधियों का परिचय भी सूक्ष्म अवगाहन से ही अनुभव में आता है। प्रत्यक्ष शरीर में रीढ़ की सरसराहट जैसी अनुभूति कभी-कभी किसी को कदाचित ही होती है।

अध्यात्म शास्त्र के अलंकारिक प्रतिपादनों में इसी ऊर्ध्वगमन को आत्मा का देवयान मार्ग से ब्रह्मलोक तक का महाप्रयाण भी कहा है। समझा जाता है कि ऐसा मरण के उपरांत ही होता है। यहाँ इतना और समझा जाना चाहिए कि मरणोत्तर सद्गति की बात सही होने के अतिरिक्त यह भी प्रत्यक्ष तथ्य है कि मेरुदंड मार्ग को देवयान मार्ग भी कहा गया है और उस मार्ग से ऊर्ध्वगमन करने वाली जागृत आत्मचेतना को दिव्यलोकगामिनी कहा गया है। ब्रह्मरंध्र ही ब्रह्मलोक है। सहस्रार पर ब्रह्म विराजमान है। उनमें समीपता को जीवात्मा परमानंद के रूप में, जीवनमुक्ति के रूप में अनुभव करता है। मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति एक ही वस्तु है। ईश्वर की समीपता को, मुक्ति को चार प्रकार की माना गया है। (१) सालोक्य (२) सामीप्य (३) सारूप्य (४) सायुज्य। मिलन की यही क्रमिक गतियाँ है। सालोक्य का अर्थ है-ब्रह्मलोक के क्षेत्र में जा पहुँचना। सामीप्य का अर्थ है-दूरी घटना और निकटता बढ़ना। सारुप्य का अर्थ ब्रह्म के समतुल्य, ब्राह्मण, ब्रह्म-परायण बन जाना। सायुज्य का अर्थ है-- आत्मसत्ता और ब्रह्मसत्ता के मध्य पूर्ण एकता का अनुभव होना, दोनों का एकाकार हो जाना। ब्रह्मात्मा एवं अवतार, अवधूत इसी स्तर के होते हैं। मरण के उपरांत मिलने वाली मुक्ति अपनी जगह पर सही होते हुए भी जीवन काल की-साधन काल की, जीवन मुक्ति का भी उसी प्रकार रसास्वादन किया जा सकता है जैसा कि कुंडलिनी जागरण ऊर्ध्वगमन ध्यान-धारणा के अंतिम भाग में मिलता है।

मूलाधार स्थित-शरीराभ्यास में गुथी हुई, उसी में रमण करने के लिए लालायित चेतना को भव-बंधनों में जकड़ी हुई कहते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर यही तो छह भव-बंधन हैं। इनका कटना तभी संभव है जब जीवात्मा अपने को, अपने स्वार्थ एवं लक्ष्य को, शरीर से ऊपर उठकर देखना आरंभ करे। जब तक शरीर को ही अपना स्वरूप माना जाता रहेगा और उसके प्रिय-अप्रिय को ही लाभहानि समझा जाता रहेगा, तब तक भव-बंधन कटने की कोई संभावना नहीं है। हवाई जहाज पर सफर करने वाले जब धरती पर दृष्टिपात करते हैं तो सभी वस्तुएँ छोटी-छोटी दिखाई पड़ती है। ठीक इसी प्रकार अंतःस्थिति ऊँची उठने पर शरीर के प्रिय विषय-वासना, तृष्णा, अहंता आदि बहुत ही तुच्छ दिखाई पड़ने लगते हैं। तब आकाश अधिक स्पष्ट दीखता और सुरम्य लगता है। कुंडलिनी जागरण के द्वितीय चरण में की जाने वाली ऊर्ध्वगमन की ध्यान-धारणा का सत्परिणाम भी ऐसा ही होता है। उस स्थिति में जीवन-मुक्ति का आनंद मिलने लगता है। यह आनंद मात्र रसास्वादन नहीं होता, वरन् अपने साथ आत्मबल का ऐसा प्रचंड प्रवाह भी जोड़े रहता है कि जिसके सहारे आत्मिक और भौतिक क्षेत्र में ऐसी कुछ उपलब्धि हो सके, जिसे समृद्धियों और विभूतियों के नाम से पुकारा जा सके।

ऊर्ध्वगमन के पयार्यवाची शब्द है-उत्थान, उत्कर्ष, अभ्युदय। इनसे उस स्तर के लोगों की स्थिति का आभास मिलता है। भौतिक बड़प्पन तो साधन संपन्नता के आधार पर निकृष्ट कोटि के व्यक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं, पर आत्मिक महानता प्राप्त करने के लिए तो गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का संपादन ही एकमात्र उपाय है। कुंडलिनी उत्थान से इसी आंतरिक उत्कर्ष की प्रेरणा मिलती है और अभ्युदय का वह आधार बनता है जिसे मानव जीवन का सर्वोपरि सौभाग्य कहा जा सके।

कुंडलिनी जागरण के प्रथम चरण में मंथन प्रक्रिया होती है। इसे प्रबल पुरुषार्थ की उमंगों का उठना कह सकते हैं, इसमें कुसंस्कारों को निरस्त करने और सदाशयता को बढ़ाने के लिए अदम्य साहस उमड़ता है। प्रसुप्ति को जागृति में बदलने का यही एकमात्र उपाय है। इस जागरण को-शक्ति उद्भव को ऊर्ध्वगामी बनाना आत्मिक प्रगति का दूसरा चरण है। दिशा धारा न मिलने से ही भटकाव की स्थिति उत्पन्न होती है। दुरुपयोग होने पर तो उससे उलटा विनाश होने लगता है। अस्तु सदशक्ति का उत्पादन होते ही उसका उपयोग उत्कृष्टता की दिशा में नियोजित किया जाता है। यही भौतिक प्रगति का आधार है और इसी मार्ग का अवलम्बन करने से आत्मिक प्रगति संभव होती है। अध:पतन बंद करने से उत्थान की संभावना बढ़ती है। पेंदे में से टपकने वाले पानी को जब छिद्र बंद करके रोक दिया जाता है तो घड़े को भरने की बात बनती है। कुंडलिनी जागरण से विकसित होने वाली आत्मसत्ता भी इसी मार्ग से समुन्नत बनती है।

ध्यान करें-सविता शक्ति जागृत कुंडलिनी शक्ति को दबाव देकर सूक्ष्म प्रवाहों के माध्यम से, मेरुदंड के मध्य से ऊपर की ओर प्रवाहित होने को बाध्य कर रही है, सविता शक्ति की लहर पर लहर उसी दिशा में चलती है और उसके साथ-साथ शरीरस्थ जीवनी-शक्ति क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ती-चढ़ती जा रही है।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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