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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

३. (ङ, ई) आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार

 


कुंडलिनी जागरण की ध्यान-धारणा का चौथा चरण है-विस्तरण अर्थात सीमित को असीम बनाना। संकीर्ण स्वार्थपरता में जकड़ा हुआ जीवात्मा महत्त्वपूर्ण प्रगति एवं उपलब्धि से वंचित ही बना रहता है। भ्रमवश लगता भर ऐसा है कि स्वार्थी मनुष्य लाभ में रहता है। अपने ही लाभ के गोरखधंधे में लगा रहने के कारण सुसंपन्न बन जाता होगा। परमार्थ में व्यय न होने के कारण उसके पास प्रचुर संपन्नता जमा हो जाती होगी। आरंभ में कुछ-कुछ लगता भी ऐसा ही है, किंतु अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि संकीर्ण स्वार्थपरता में जो लाभ सोचा गया था, वह सही नहीं निकला। उलटे इस भ्रम जंजाल में अपने पैरों कुल्हाड़ी मारी गईं, भारी हानि उठाई गईं।

संकीर्ण स्वार्थपरता ही-उद्धत विलासिता, आतुर तृष्णा और उदंड अहंता के रूप में पिशाच नृत्य करती है और दुष्ट चिंतन में क्रूर-कर्मों में उलझाए रह कर शोक-संतापों के गर्त में धकेल देती है। स्वार्थी का उपार्जन दुर्व्यसनों में नष्ट होता है अथवा उत्तराधिकारी उस हराम की कमाई को फुलझड़ी की तरह जलाते हैं । ऐसा व्यक्ति जीवन-लक्ष्य की पूर्ति के लिए परमार्थ-पुरुषार्थ कर सकने का साहस जुटा ही नहीं पाता। किसी प्रकार सस्ती बाल-क्रीड़ा जैसे पूजा-पाठों का आश्रय लेकर उन स्वप्नों को देखता रहता है, जो उदात्त जीवन नीति अपनाने वालों के लिए प्रत्यक्ष हो सकते हैं।

आत्मिक प्रगति का सीधा अर्थ है-आत्म विस्तार, अपनेपन की सीमा को अधिकाधिक व्यापक विस्तृत बनाना। सब हमारे-हम सबके की मान्यता ही वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में परिणत और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' बनकर विकसित होती है। संकीर्ण मनुष्य नर है और उदात्त बनने पर यही नारायण बन जाता है। पुरुष को पुरुषोत्तम, अणु को विभु, तुच्छ को महान, जीव को ब्रह्म बनने का अवसर आत्म विस्तार का उदात्त दृष्टिकोण अपनाने से ही प्राप्त होता है। संसार के समस्त महामानवों को अनिवार्य रूप से अपने जीवन में उदात्त परमार्थ वृत्ति का समावेश करना पड़ा है। साधु और ब्राह्मण जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। भगवत् भक्तों को सादा जीवन उच्च विचार की आधार शिला पर खड़े होकर सच्ची ईश्वरपरायणता का प्रमाण देना पड़ता है। जिसे कृपणता, संकीर्णता और स्वार्थपरता ने घेर रखा हो, समझना चाहिए कि उसकी आस्तिकता, आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता कोई विडंबना है। आत्मिक प्रगति का परिचय तो अपनेपन का अधिकाधिक विस्तार करते चलने से ही मिलता है। यज्ञीय जीवन इसी को कहते हैं। परमार्थ और यज्ञ एक ही तथ्य के दो नाम हैं-जीवन को यज्ञमय बनाने पर ही नर कलेवर में नारायण का प्रकटीकरण होता है।

कुंडलिनी ध्यान-धारणा का चौथा चरण इस विस्तरण प्रक्रिया को अपनाने से ही संपन्न होता है। भावना की जाती है कि मूलाधार शक्ति की चिनगारी सीमित क्षेत्र में अवरुद्ध नहीं रही, वरन् व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने वाली दावानल का रूप धारण कर रही है। ज्योति ने छोटी बत्ती में सीमित न रहकर प्रचंड ज्वाला की तरह अपना क्षेत्र विस्तृत बनाने का निश्चय कर लिया। कुंडलिनी मूलाधार में विकसित होकर समग्र आत्मसत्ता पर आच्छादित हुई और काय-कलेवर का समूचा क्षेत्र अपनी परिधि में, पकड़ में ले लिया। कुंडलिनी मूलाधार में अवरुद्ध नहीं रही, वरन समूचे जीवन लिया। जो चिंतन एवं कर्म मात्र शरीर तथा उसके साथ जुड़े हुए

कुछ परिवारों के लिए नियोजित रहता था, उसने अपनी आत्मीयता बढ़ा ली और असंख्य के साथ अपनापन जोड़कर परमार्थ में स्वार्थ सधने की मान्यता अपना ली।

यह कोई स्वप्न या कल्पना या मनोरंजन नहीं, वरन् ऐसा तथ्य है जो व्यवहार में उतरता ही चला जाना चाहिए। इस धारणा के समय ये भावनाएँ उभरती रहनी चाहिए कि संकुचित चिनगारी अब सुविस्तृत दावानल बनने जा रही है और ज्योति ज्वाला बनकर रहेगी शरीर और परिवार का स्वार्थ ही भूत की तरह सिर पर छाया न रहेगा। वरन् उनमें देव प्रयोजनों की पूर्ति का साहस भी उभरेगा।

पेट और प्रजनन भर से अब संतोष न किया सकेगा, वरन् उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता का अभिवर्धन करने वाली गतिविधियों को भी जीवन नीति में सम्मिलित करना पड़ेगा। देश, धर्म, समाज और संस्कृति का भी उसी प्रकार ध्यान रखना पड़ेगा जैसा कि शरीर और परिवार के हित साधन का रखा जाता है। यह चिंतन अधिकाधिक स्पष्टतापूर्वक मस्तिष्क को प्रभावित करने लगे और व्यवहार में उसी प्रकार के प्रयासों में तत्परता दृष्टिगोचर होने लगे तो समझना चाहिए कि विस्तरण की ध्यान-धारणा का अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो रहा है।

ध्यान करें-मूलाधार स्थित सामान्य स्फुर्लिंग प्रचंड ज्वाला के रूप में बढ़ गए। सभी चक्रों से प्रकाश धाराएँ विकसित होकर चारों ओर फैल रही हैं। मेरुदंड जलती हुई ट्यूब लाइट की तरह प्रकाश से भरा हुआ है। सारे शरीर संस्थान में दिव्य संवेदनाओं की सिहरन उठती है, अंदर असीम शक्ति का अनुभव, आत्मीयता, प्रेम, करुणा आदि विस्तृत होकर सारे विश्व को अपनी गोद में समेटे ले रही है-ऐसा बोध।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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