लोगों की राय

आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

127 पाठक हैं

ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

३. (च) अंतिम चरण-परिवर्तन

 


साधना सफल हो रही है या असफल? इस प्रश्न का उत्तर एक ही आधार पर दिया जा रहा है कि नर-पशु जैसी स्थिति का परिष्कार नर-नारायण बनने की दिशा में हो रहा है या नहीं। यदि चिंतन पशप्रवृत्तियों में ही उलझा रहता हो। लोभ और मोह के अतिरिक्त और किसी में रुचि न हो, पेट और प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ कर्तव्य सझता ही न हो, वासना और तृष्णा की खुमारी हलकी न पड़ रही हो तो समझना चाहिए कि आत्मसाधना के सारे प्रयास कल्पना एवं बाल-क्रीडा बनकर मात्र मनोविनोद का प्रयोजन पूरा कर रहे हैं। उनका वास्तविक सत्परिणाम उत्पन्न नहीं हो रहा है। ईश्वरीय अनुग्रह और दैवी अनुदानों का आरंभ होने जा रहा है या नहीं? इसकी परख इसी कसौटी पर हो सकती है कि चिंतन और कर्म में उत्कृष्टता का समावेश हुआ या नहीं। स्पष्ट है कि पशु प्रवृत्तियों में जकड़ा हुआ कोई मनुष्य आज तक कभी भी आत्मकल्याण का, ईश्वरीय अनुग्रह का अनुदान प्राप्त कर सकने में सफल नहीं हुआ। भले ही वह पूजा-पाठ के कितने ही उपचार रचता और बदलता रहता हो। सोने के खरेपन की परख उसे आग में तपाने और कसौटी पर कसने से होती है। ठीक उसी प्रकार साधना मार्ग पर चलते हुए आत्मपरिष्कार की प्रगति का स्तर इस आधार पर आँका जाता है कि साधक ने अपने दृष्टिकोण एवं क्रिया-कलाप में उत्कृष्टता का कितना समावेश किया, पशु प्रवृत्तियों का देव वृत्तियों में परिवर्तन कितने परिमाण में संभव हो सका ?

गीता में आत्म-मार्ग के पथिकों की गतिविधियाँ, भव-बंधनों में जकड़े हुए मायाग्रस्त सामान्य नर-वानरों से भिन्न प्रकार की बताई हैं। अलंकारिक रूप से कहा है कि जब संसारी सोते हैं तब योगी जगते हैं। जब योगी जगते हैं तब संसारी सोते हैं। इस पहेली का अर्थ यह है कि मोहांध संसारियों से विवेकवान आत्मवानों का दृष्टिकोण, लक्ष्य, स्वभाव एवं प्रयत्न भिन्न प्रकार का प्रायः विपरीत स्तर का होता है। जिन बातों को संसारी प्राण-प्रिय मानते हैं और उनके लिए जीवन संपदा निछावर कर देते हैं, इनमें आत्मवानों को न तो रुचि होती है और न रस। वे उस ओर से उदासीन रहते हैं और महानुभावों के द्वारा अपनाए गए उस मार्ग पर साहसपूर्वक चलते हैं, जिसे चतुर लोगों की दृष्टि में 'मूर्खता' ही समझा जा सकता है। ऐसी दशा में स्पष्ट है कि साधक के जीवन-क्रम में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ दृष्टिगोचर होने लगा। सामान्य व्यक्ति अपनी तुलना में उसे असाधारण रूप में भिन्न एवं बदला हुआ देखे तो यह स्वाभाविक ही है।

कुंडलिनी आत्मशक्ति है। जब वह प्रखर होती है तो उन आंतरिक दुर्बलताओं को निरस्त होना पड़ता है, जो आदर्श जीवन के मार्ग पर बढ़ चलने से रोकने वाली सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। आकर्षणों का लोभ और तथाकथित 'मित्रों' का दबाव यही दो कारण हैं-जिनमें उत्कृष्टता के देव मार्ग पर चलने वाली आंतरिक उमंगों में पग-पग पर पद-दलित होना पड़ता है। इच्छा और सुविधा रहते हुए भी मनुष्य कुछ कर नहीं पाता और पेट-प्रजनन के पशुलोक में किसी प्रकार जीवन का भार ढोते हुए, पाप का भार और भी अधिक बढ़ाते हुए, अंधकार भरे भविष्य की दिशा में संसार से कूच करता है। इसी प्रवाह में जन-जीवन बहता रहता है। उसे चीरकर उलटे चलने की मछली जैसी क्षमता जिनमें उग सके, समझना चाहिए आत्मबल जगा और कुंडलिनी जागरण का चिह्न प्रकट हुआ। बढ़ी हुई आत्मशक्ति कितने ही चमत्कार दिखाती है। इनमें सबसे पहला यह होता है कि अपने आंतरिक दुस्साहस के बलबूते 'अकेला चलो रे' का मंत्र जपते हुए आत्मा श्रेय पथ पर एकाकी चल पड़ता है। अपने निश्चय के लिए भगवान के संकेत के अतिरिक्त और किसी के परामर्श एवं सहयोग की जरूरत नहीं पड़ती। आवश्यक ही हुआ तो देव परंपरा के महामानवों की साहसिक साक्षियाँ, उक्तियाँ, स्मृतियाँ इस प्रयोजन के लिए पर्याप्त मात्रा में सहज ही मिल जाती हैं। इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ इसकी साक्षी देने के लिए प्रस्तुत हैं। उनमें साहसिक प्रेरणा देने वाले तत्त्व प्रचुर परिमाण में कभी भी प्राप्त किए जा सकते हैं।

श्रेष्ठता की कल्पना करते रहना और निष्कृष्टता के मार्ग पर चलते रहना, यही है आत्मिक दुर्बलता का सबसे बड़ा प्रमाण। कुंडलिनी जागरण की आंतरिक प्रखरता इस विडंबना को लात मार कर भगा देती है और शूरवीरों जैसे दूरदर्शी निर्णय और साहस भरे संकल्प लेकर सामने आती है। इतनी सामग्री जहाँ जट सकेगी वहाँ नरक की कीचड़ में सड़ते रहने की विवशता का और कोई बाहरी कारण बाधक न रह जाएगा। इस जागरण की प्रतिक्रिया ऐसे परिवर्तन के रूप में सामने आती है जिसे 'कायाकल्प' कहा जा सके। बूढे शरीर को औषधियों के सहारे यवा बनाने के प्रयत्नों को कायाकल्प कहा जाता है। उसमें तो कोई कहने लायक सफलता अभी तक नहीं मिली है, पर आंतरिक कायाकल्प के उपचार से थके-हारे बूढ़े मन, नंवयवकों जैसी अभिनव उमंगों से भरे-पूरे निश्चय ही बन सकते हैं। लिप्साओं और ललकों में जकड़ा, लोभ और मोह द्वारा पकड़ा, निरीह दयनीय जीव जब आत्मगौरव को समझने लगता है और आत्मावलंबन के सहारे आत्मनिर्माण के लिए तन कर खड़ा होता है तो जीवन धारा को आदर्शवादिता की दिशा में जोड़ देने के रूप में ही इसे कायाकल्प की संज्ञा दी जा सकती है। यह परिवर्तन आत्मबल की प्रचुरता के बिना संभव हो ही नहीं सकता। कुंडलिनी जागरण की सूक्ष्म प्रक्रिया को स्थूल परिचय के रूप में जानना हो तो उसे परखा जाना चाहिए। दृष्टिकोण, लक्ष्य, रुझान एवं क्रिया-कलाप का यह उच्चस्तरीय परिवर्तन ही कुंडलिनी जागरण का अंतिम चरण है। ध्यान-धारणा में इसी आस्था को परिपक्व किया जाता है। सर्वतोमुखी परिवर्तन के उज्ज्वल भविष्य का स्वर्णिम भाव चित्र अंत:लोक में विनिर्मित किया जाता है ताकि उसी प्रकार का प्रत्यक्ष परिवर्तन भी संभव हो सके।

मूलाधार शक्ति का सहस्रार में जा मिलना, परिवर्तित होना यह बताता है कि काम-बीज, ज्ञान-बीज के रूप में परिवर्तित हो रहा है। क्षुद्र प्राणी कामनाओं के, कामुकता के, कल्पना रस में ललचाते रहते हैं और बेतरह चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह फँसते और दुर्गति भुगतते हैं। आटे की गोली के लोभ में जान गँवाने वाली मछली की तरह इन कामग्रस्तों की दुर्दशा होती है। आत्मजागृति में विवेक के नेत्र खुलते हैं और परिणाम की प्रतिक्रिया सूझ पड़ती है। ऐसी दशा में रस का केंद्र काम बिंदु न रहकर ज्ञान बिंदु बन जाता है। सद्ज्ञान के अवगाहन में उससे कहीं अधिक उच्चस्तरीय आनंद आता है जैसा कि लोलुपों को कामनाओं में डूबते-तिरते हुए कुछ-कुछ अनुभव होता है। भावी जीवन की सुनिश्चित रूपरेखा विवेकशीलता के आधार पर बनाना और उस पर बिना लड़खड़ाए आजीवन चलते रहने का संकल्प करना, इसी मनोभूमि में बन पड़ता है। कुंडलिनी जितने अंशों में जागृत होती है, उतने ही अनुपात से यह सर्वतोमुखी परिवर्तन की प्रक्रिया प्रखर होती है। तब सद्ज्ञान ही भावी यात्रा का एक मात्र मार्गदर्शक होता है। यह महान परिवर्तन सबको अपने में दीखता है। हर कोई इस परिवर्तन को अनुभव करता है। इतना ही नहीं अपने को भी शरीर, संसार, संपर्क के साधन, सबंद्ध प्राणी प्रायः बदले हए ही दीखते हैं। मोह नेत्रों के स्थान पर जब दिव्य चक्ष लगते हैं तो संसार का स्वरूप पहले जैसा न रहकर सर्वथा भिन्न एवं विचित्र प्रकार का लगता है। इसी विराट् विश्व में परब्रह्म की झाँकी अहर्निश होने लगती है।

क्षुद्रता का महानता में परिवर्तन, कामना का भावना में परिवर्तन, नर का नारायण में परिवर्तन जैसे महान परिवर्तनों का अंत:क्षेत्र में होना सच्चे अर्थों में आत्मिक कायाकल्प है। इसी को तमसाछन्न की सत्त्व संपदा में, नरक की स्वर्ग में, बंधनों की मुक्ति में परिणति भी कह सकते हैं। आत्मा का परमात्म स्वरूप में, अपूर्णता का पूर्णता में परिवर्तन होना, यही वह जीवन-लक्ष्य है जिसकी प्राप्ति के लिए यह सुरदुर्लभ मानव जन्म प्राप्त हुआ है। कंडलिनी जागरण की ध्यान-धारणा का अंतिम चरण-परिवर्तन, इसी स्थिति को प्राप्त करने की आतुरता, उत्कंठा उत्पन्न करता है। चाह की उत्कृष्टता स्वयमेव राह बनाती और लक्ष्य तक पहुँचने का साधन जुटाती है।

ध्यान करें-शक्ति क्षेत्र मूलाधार की तरंगों का, शिव क्षेत्र सहस्रार में विलय हो रहा है। शक्ति शिव एक हो गए हैं। शरीर संस्थान पर दिव्यसत्ता के आधिपत्य का बोध। ब्रह्मज्योति में तप कर आत्मसत्ता, कामना, वासना आदि कलुषों से मुक्त होकर ब्रह्मसत्ता से एक रूप हो रही है। स्वार्थ परमार्थ में, अपने सुख की कामना सबके हित की आकांक्षा में, वासना-तुष्णा-शांतिसंतोष में परिवर्तित हो रहे हैं। आत्मवर्चस् असीम से एकाकार होकर ब्रह्मवर्चस् के रूप में बदल रहा है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book