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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

४. (क, ख) समापन शांति पाठ

 


दोनों ध्यान-धारणाओं का अंतिम चरण समापन शांति पाठ है। किसी लेख में 'उपसंहार' अनिवार्य माना जाता है। ध्यान धारणा की प्रस्तुत प्रक्रिया में समापन शांति पाठ का भी उतना ही महत्त्व है। इसे अनिवार्य महत्त्व देने के कई कारण हैं। एक तो ध्यान प्रयोग के दौरान साधक का भाव प्रवाह, उसकी संकल्प शक्ति बहुत प्रखर हो जाती है, चेतना अंत:करण की गहराइयों में दर तक प्रविष्ट हो जाती है। ध्यान की समाप्ति पर वह पुनः धीरे-धीरे लौकिक धरातल पर आती है। उस समय उसके प्रखर भाव प्रवाह एवं संकल्प को दिशाबद्ध रखना आवश्यक है। तेज चलती हुई कार में ब्रेक लगाते समय स्टियरिंग के संतुलन का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। यही स्थिति ध्यान प्रयोग के समापन के समय होती है। ध्यान प्रयोग के बाद समापन शांति पाठ उसी सावधानी एवं दिशाबद्धता की दृष्टि से आवश्यक है।

दूसरा कारण यह है कि साधक ध्यान प्रयोग में स्वयं को महत चेतना से जुड़ा हुआ अनुभव करता है, उसके दिव्य अनुदानों के मिलने की अनुभूति करता है। भाव समाधि से वापिसी पर, योगनिद्रा से जागने पर भी वह उसे अनुभव करता रहे, उसे पाता रहे, यह आवश्यक भी है और उपयोगी भी। समापन-शांति पाठ के समय साधक समाधि से शनैःशनैः जागता तो है ही, पर साथ में यह भी अनुभव करता है कि दिव्य-धाराएँ, दिव्यानुदान उसे उतनी ही प्रचुरता से मिल रहे हैं, मिलते रह सकते हैं, जितने कि भाव समाधि की अवस्था में।

एक बात और भी है-किसी सत् पुरुष अथवा सत्-शक्ति के निकट कुछ समय स्नेहपूर्वक बिता कर व्यक्ति जब उठता है तो अपनी श्रद्धा एवं सम्मान को व्यक्त करता है तथा उस समय उस सत्ता का स्नेह भरा आशीर्वाद विशेष रूप से उमड़ पड़ता है, जिसे पाकर व्यक्ति धन्य हो जाता है। ध्यान साधना की समाप्ति के समय इष्ट और साधक के बीच भी यह श्रद्धा एवं आशीर्वाद का आदान-प्रदान विशेष गहनता से चल पड़ता है। उसकी अनुभूति सारी ध्यान साधना से भी अधिक सरस तथा तृप्तिकारी होती है। श्रद्धाभिव्यक्ति एवं स्नेहामृत पान की यह प्रक्रिया कई साधकों के लिए तो समग्र ध्यान प्रयोग से भी अधिक रोचक एवं लाभप्रद सिद्ध होती है।

इसमें पहले 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' 'असतो मा सद्गमय' एवं 'मृत्योर्मा अमृतम्' गमय, का गंभीर उद्घोष होता है। हर साधक इसे अपने अंत:करण से उठती हुई प्रार्थना माने। उद्घोष कई बार दुहरादुहरा कर किया जाता है। उसके साथ-साथ साधक क्रमशः अपनी सहजावस्था में भी आता है तथा इष्ट से यह प्रार्थना भी करता रहता है कि हमें प्रकाश की, सत् की, अमृतत्व की ओर बढ़ाते चलना। इससे जागृतावस्था का विकृत अहं नहीं उभर पाता तथा आत्मप्रगति का सशक्त संकल्प कमजोर नहीं होने पाता। इसे विदाई के समय की श्रद्धाभिव्यक्ति प्रार्थना कह सकते हैं।

उसके बाद पंच ओंकार का गुंजार किया जाता है। इसे परम सत्ता का, इष्ट का स्नेह आशीर्वाद-प्रसाद माना जाना चाहिए। 'ॐ' अक्षर ब्रह्म है। इस दिव्य गुंजार के साथ उसकी स्वर तरंगों के साथ अपने इष्ट, उपास्य, परम स्नेही के अनुदान, प्रेरणा प्रवाहों को आता हुआ अनुभव करना चाहिए। जैसे भक्त श्रद्धालु व्यक्ति चरणामृत, पंचामृत को बड़े चाव से लेता तथा बडी प्रसन्नता से पान करता है, वैसा ही भाव इस समय रहे। साधक शरीर की स्वाभाविक स्थिति में आता हुआ, गहरे श्वास-प्रश्वास लेता हुआ यह अनुभव करे कि उसका रोम-रोम स्वर-तरंगों के साथ घुला हुआ अमृत पान कर रहा है, धन्य हो रहा है, सामर्थ्य और तृप्ति प्राप्त कर रहा है।

इस प्रकार समापन-शांति पाठ के साथ ध्यान-धारणा समाप्त की जाय। उसके बाद भी थोड़ी देर तक मौन रहने, शांत चित्त से टहलने, स्वाध्याय करने जैसी सौम्य-गंभीर क्रिया ही करनी चाहिए। उत्तेजना, उच्छृखलता, हल्के हास-परिहास, भाग-दौड़ जैसे कार्यों का बचाव करना आवश्यक है। इस प्रकार ध्यान-धारणा के माध्यम से हर साधक सुनिश्चित एवं स्थाई लाभ प्राप्त करता रह सकता है।


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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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