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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

साधना की क्रम व्यवस्था


पंचकोश अनावरण एवं कुंडलिनी जागरण साधनाओं को अति विशिष्ट एवं दुःसाध्य साधनाएँ माना जाता रहा है। किसी हद तक यह उक्ति ठीक भी है, किंतु अपना प्रयास सदैव यही रहा है कि हर उपयोगी प्रक्रिया को यथासाध्य जनोपयोगी बनाया जाय। प्रभु कृपा से इस प्रकार के कार्यों में अब तक आशातीत सफलता भी मिली है। अत्यंत गूढ़ एवं कठिन समझी जाने वाली गायत्री साधना का जनोपयोगी बन जाना इसका प्रमाण है। देश-विदेश में करोड़ों व्यक्ति गायत्री साधना की सुगम विधि को अपनाकर वेदमाता की कृपा के अधिकारी बने हैं-बन रहे हैं। ब्रह्मवर्चस साधना के अंतर्गत पंचकोशी एवं कुंडलिनी साधनाओं को भी उसी भाव से इस रूप में विकसित-प्रस्तुत किया गया है कि हर स्थिति का व्यक्ति थोड़ी-सी तत्परता बरत कर इन उच्चस्तरीय योगसाधनाओं का पर्याप्त लाभ प्राप्त कर सके।

ब्रह्मवर्चस् साधना के अंतर्गत दोनों ही साधनाओं का प्रमुख आधार ध्यान-धारणा को माना गया है। यही उचित भी है। मनुष्य के अंदर दो संघर्ष शक्तियाँ हैं-संकल्प एवं भाव संवेदना। इनमें शरीर के स्थूल अंगों से लेकर सूक्ष्म संस्थान तक हर पक्ष को प्रभावित करने की सामर्थ्य है। ध्यान-धारणा में इन्हीं को प्रखर बनाकर सुनिश्चित दिशा में नियोजित किया जाता है। इसीलिए पंचकोश जागरण एवं कुंडलिनी योग जैसी साधनाओं के लिए मुख्य आधार ध्यान-धारणा को ही बनाया गया है। यों हर साधना के साथ पाँचपाँच सहायक साधनाएँ भी रखी गई हैं। उनका अभ्यास साधक अलग से क्रमश: बढ़ाता रहता है। जैसे-जैसे उनमें गति बढ़ती है, वैसे ही वैसे साधकों की ध्यान-धारणा अधिकाधिक प्रखर-प्रगाढ़ होती चली जाती है। इस पुस्तक में साधना की मुख्य धारा ध्यानधारणा की ही क्रम-व्यवस्था समझाई गई है। सहयोगी साधनाओं का दर्शन और स्वरूप भिन्न पुस्तक 'ब्रह्मवर्चस् की दस सहयोगी साधनाएँ' में दिया गया है।

उच्चस्तरीय साधना में अंतःशक्तियों को विशेष दिशा एवं धारा में प्रवाहित किया जाता है। उसके लिए संकल्प एवं भाव संवेदनाओं द्वारा उन्हें ठेला-ढकेला जाता है। शक्ति-धाराओं को किसी विशेष दिशा में लगाना असाधारण पुरुषार्थ का कार्य है। साधक अपनी शक्ति उसके लिए लगाता ही है, किंतु साथ ही दिव्य-शक्तियों का सहयोग भी माँगता है। गायत्री मंत्र के अंत में 'प्रचोदयात्' कहकर अपनी चेतना को श्रेष्ठ मार्ग पर ठेल कर बढ़ा देने की ही प्रार्थना की गई है। उच्चस्तरीय योगसाधना में इस धारणा को सामान्य प्रार्थना स्तर के ऊपर प्रखर संकल्प, व्याकुलता भरे आग्रह, प्रखर निर्देश में बदलना पड़ता है। तभी साधना प्राणवान बनती है।

पंचकोशीय साधना एवं कुंडलिनी योग दोनों के लिए संकल्प एवं भाव-संवेदना को दिशा देने के लिए निर्धारित-व्यवस्थित संकेत बना दिए गए हैं। इसी क्रम से ध्यान प्रयोग किया जाना चाहिए। हर संकेत के बाद थोड़ा समय दिया जाता है, ताकि अंत:चेतना उसे आत्मसात् कर सके, क्रियान्वित कर सके। प्रस्तुत निर्देशों के आधार पर ध्यान-धारणा में औसतन ४५ मिनट का समय लगता है।

संकेतों को ध्यान में रखकर स्वतः ही उस क्रम से ध्यान करना बहुत कठिन है। संकेतों को भली प्रकार आत्मसात् कर लेने पर ही वैसा संभव हो सकता है। स्मृति पर जोर डालते ही ध्यान में लगने वाली मानसिक शक्ति बिखर जाती है और ध्यान की प्रखरता घट जाती है। अतः अच्छा यह है कि कुछ लोग सामूहिक रूप से ध्यान करने बैठें तथा एक व्यक्ति व्यवस्थित क्रम से संकेत बोलता रहे। इसके लिए टेप रिकार्डर का भी प्रयोग किया जा सकता है।

विशिष्ट साधना-क्रम का अभ्यास शांतिकुंज हरिद्वार में चलने वाले 'साधना' सत्रों में कराया जाता है। उपयुक्त वातावरण, प्रत्यक्ष मार्गदर्शन एवं समर्थ संरक्षण में की गई साधना का महत्त्व हर साधक जानता है। अस्तु प्रयास यही करना चाहिए कि साधना का प्रारंभ किसी सत्र में उसे विधिवत् सीख कर ही किया जाय। जब तक यह संभव न हो तब तक ध्यान-धारणा का अभ्यास अपने-अपने स्थान पर भी किया जा सकता है, किंतु साधनाओं को तो भली प्रकार समझे-सीखे बिना नहीं ही करना चाहिए। सहयोगी साधनाएँ भिन्नभिन्न मनोभूमि के व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न ढंग से करनी होती हैं। उन्हें भली प्रकार समझ कर करना ही उचित है। एक बार सीख कर उन्हें व्यक्तिगत रूप से ही क्रमशः आगे बढ़ाते रहना भी संभव है। ध्यान-धारणा तो सामूहिक रूप से ही करना उचित है।

ध्यान-धारणा का अभ्यास क्रम अपने-अपने स्थानों पर सप्ताह में एक बार ही किया जाना चाहिए। सहयोगी साधनाओं का अभ्यास, अपनी स्थिति के अनुरूप प्रतिदिन भी किया जा सकता है। ध्यानधारणा के लिए कोई कोलाहलहीन शांत स्थल चुनना चाहिए। प्रात:काल ब्रह्म-मूहुर्त इसके लिए उपयुक्त समय है। सभी साधक स्वच्छतापूर्वक व्यवस्थित रूप से वहाँ बैठें। टेप अथवा किसी व्यक्ति द्वारा संकेतों को दुहराया जाय। संकेतों के आधार पर साधक ध्यानधारणा का प्रयोग चाल रखें।

ध्यान-धारणा की प्रखरता एवं लाभ इस बात पर निर्भर है कि साधक ने उसके दर्शन को उसके मर्म को कितनी गहराई से समझा-अपनाया है? संकेत तो सबके कानों में समान रूप से कंपन उत्पन्न करेंगे, किंतु अपनी-अपनी अंतरंग तैयारी के आधार पर हर साधक के ध्यान की प्रगाढ़ता एवं उसके प्रभाव में भारी अंतर होना संभव है। इसीलिए सप्ताह भर संकेतों के मर्म का अध्ययन-मनन तथा एक बार उन्हें क्रियान्वित करने का ध्यान प्रयोग चलाने की बात कही गई है। साधक अपनी रुचि एवं मनःस्थिति के अनुरूप किसी एक ध्यान को ही हर सप्ताह करते रह सकते हैं। यदि दोनों को चलाना चाहें तो क्रमश: एक बार पंचकोशी तथा एक बार कुंडलिनी जागरण का ध्यान-प्रयोग किया जाना उचित है। यहाँ प्रारंभ में ध्यान के संकेत दिये गए हैं तथा फिर उनके दर्शन, तत्त्वज्ञान एवं स्वरूप का उल्लेख किया जा रहा है। ध्यान के किस निर्देश के साथ किस अनुभूति के लिए प्रयास किया जाय, इसके लिए हर स्थल पर भिन्न टाइप में एक-एक पैराग्राफ जोड़ा गया है।

यहाँ ध्यान रहे कि साधना मार्ग पर क्रमशः ही बढ़ा जा सकता है। उतावली में सामान्य लाभ भी हाथ से निकल जाते हैं। गायत्री के उच्चस्तरीय साधना-क्रम में प्रवेश करने वाले हर साधक को पहले सामान्य गायत्री साधना द्वारा अपने अंत:करण को इतना सबल बना लेना चाहिए कि उच्चस्तरीय प्रयोगों को वह सँभाल सके, चला सके। शांति कुंज के सत्रों में तो नए साधकों से भी समर्थ संरक्षण में साधना प्रारंभ करा दी जाती है, किंतु बाहर तो क्रमिक रूप से ही बढ़ना उचित है। प्रस्तुत ध्यान-धारणा की समग्र प्रक्रिया को तीन चरणों में विभक्त किया जा सकता है।

(१) ध्यान भूमिका में प्रवेश-यह प्रक्रिया ध्यान मुद्रा से प्रारंभ होकर सविता शक्ति से एकत्त्व-अद्वैत की अनुभूति तक चलती है। यह चरण पंचकोश एवं कुंडलिनी दोनों ही ध्यानों में समान रूप से समाविष्ट है।

(२) विशिष्ट ध्यान प्रयोग-इसके अंतर्गत ध्यान-धारणा द्वारा अंतरंग की शक्ति-धाराओं को पंचकोशी अथवा कुंडलिनी साधना के अनुरूप संचालित किया जाता है। इसके लिए दोनों प्रक्रियाओं में भिन्न-भिन्न क्रम निर्धारित हैं।

(३) समापन शांति-पाठ-यह प्रक्रिया विशिष्ट प्रयोग के बाद में की जाती है और दोनों प्रकार के ध्यान क्रमों में समान रूप से होती है। यह चरण असतो मा सद्गमय से प्रारंभ होकर पंचॐकार तक चलती है।

उपरोक्त आधार पर दोनों प्रकार के ध्यान के संकेत प्रारंभ एवं अंत में एक जैसे ही है, बीच में ही उनमें भिन्नता है। फिर भी सुविधा की दृष्टि से दोनों ही ध्यान प्रक्रियाओं के संकेत प्रारंभ से अंत तक अलग-अलग दिए गए हैं, किंतु व्याख्याओं में पुनरोक्ति उचित नहीं है। अस्तु ध्यान भूमिका में प्रवेश संकेतों की व्याख्या केवल पंचकोशी ध्यान की व्याख्या के साथ की गई है। बाद में कुंडलिनी जागरण के विशिष्ट ध्यान प्रयोग की ही व्याख्या की गई है। अंत में समापन शांति-पाठ खंड की व्याख्या की गई है।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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