कहानी संग्रह >> फणीश्वरनाथ रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँ फणीश्वरनाथ रेणु की श्रेष्ठ कहानियाँभारत यायावर
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फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियाँ अपनी संरचना, प्रकृति, शिल्प और रस से हिन्दी कहानियों की परम्परा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियां अपनी संरचना, प्रकृति शिल्प और रस में हिंदी
कहानियों की परंपरा में एक अलग और नई पहचान लेकर उपस्थित होती रही हैं।
वस्तुतः एक नई कथा-धारा का प्रारम्भ इन्हीं कहानियों से होता है। ये जितनी
प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं, उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की
कहानियों से। संभवतः रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए नया
सौंदर्य शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
ये कहानियाँ किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केन्द्र में रखकर नहीं बुनी गई हैं, अपितु ये हमें सीधे-साधे जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप में निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है। रेणु का महत्व वस्तुतः मात्र आंचलिकता में नहीं, उसके अतिक्रमण में है। पुस्तक में रेणु की 21 कहानियाँ संकलित हैं, जो समय-समय पर अत्यंत चर्चित हुईं। संकलन श्री भारत यायावर ने किया है, जिन्होंने न केवल रेणु की श्रेष्ठ कहानियां संकलित की हैं बल्कि उन्हें एक ऐसे क्रम में भी रखा है, जिससे पाठकों को रेणु के कथाकार का सही-सही साक्षात्कार हो सके।
ये कहानियाँ किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केन्द्र में रखकर नहीं बुनी गई हैं, अपितु ये हमें सीधे-साधे जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप में निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है। रेणु का महत्व वस्तुतः मात्र आंचलिकता में नहीं, उसके अतिक्रमण में है। पुस्तक में रेणु की 21 कहानियाँ संकलित हैं, जो समय-समय पर अत्यंत चर्चित हुईं। संकलन श्री भारत यायावर ने किया है, जिन्होंने न केवल रेणु की श्रेष्ठ कहानियां संकलित की हैं बल्कि उन्हें एक ऐसे क्रम में भी रखा है, जिससे पाठकों को रेणु के कथाकार का सही-सही साक्षात्कार हो सके।
भूमिका
हिंदी कहानी अपनी विकास-यात्रा की कई मंजिलें तय कर चुकी है। अपने
प्रारंभिक दौर में ही इसे प्रेमचंद जैसे प्रतिभाशाली कथाशिल्पी का योगदान
मिल गया, जिसके कारण हिंदी कहानी शिखर तक पहुंच गयी। प्रेमचंद ने
वैविध्यपूर्ण कथा-क्षेत्रों का पहली बार उद्घाटन अपनी कहानियों में किया,
साथ ही शिल्प के अनेक प्रयोग भी किये। प्रेमचंद के परवर्ती कथाकारों
जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल आदि ने उसे नये आयाम दिये, पर प्रेमचंद की परंपरा
से अलग हटकर सूक्ष्म ऐंद्रिकता और कलात्मकता के साथ ये कथाकार हिंदी कहानी
के नागरिक जीवन की बारीकियों के उद्गाता हुए। फणीश्वरनाथ रेणु ने अपनी
कहानियों के द्वारा प्रेमचंद की विरासत को पहली बार एक नयी पहचान और
भंगिमा दी। रेणु, प्रेमचंद और जैनेंद्र, अज्ञेय, यशपाल की पीढ़ी तथा
स्वातंत्र्योत्तर कथा-पीढ़ी, जिसे नयी कहानी आंदोलन का जन्मदाता कहा जाता
है, के संधिकाल में उभरे कथाकार हैं। इसीलिए उनकी समवयस्कता कभी अज्ञेय,
यशपाल के साथ, तो कभी नयी कहानी के कथाकारों के साथ घोषित की जाती रही है।
रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास, ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन अगस्त 1954 में हुआ था, और उसके ठीक दस वर्ष पूर्व अगस्त, 1944 में उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी थी। यानी रेणु की कहानियां ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के दस वर्ष पहले से ही छपने लगी थीं। पांचवें दशक में उनकी अनेक महत्त्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं। ये कहानियां ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ के प्रौढ़ कथा-शिल्पी की ही कहानियां थीं, जिनमें एक बड़े कलाकार के रूप में आकार ग्रहण करने वाले लेखक की कला-सजग आंखें, गहरी मानवीय संवेदना, बदलते सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की मजबूत पकड़ वैसी ही थी, जैसी उनकी बाद की रचनाओं में दिखाई पड़ती है। मगर ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ की अपार लोकप्रियता और इन दोनों उपन्यासों पर प्रारंभ से ही उत्पन्न विवादों एवं बहसों के फलस्वरूप रेणु की कहानियों का अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया।
रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती हैं। अंततः एक नयी कथा-धारा का प्रारंभ इनसे होता है। ये कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नये सौंदर्य-शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
रेणु ने जिन कथाकारों से प्रेरणा ग्रहण की, वे हैं रूसी कथाकार मिखाइल शोलोखोव, बंगला कथाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद। रेणु की कहानियों पर इन चारों का मिलाजुला प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसीलिए प्रेमचंद द्वारा निर्मित कथा-भूमि को वे ग्रहण करते हैं, पर उसमें शोलोखोव की तरह सांस्कृतिक गरिमा को मंडित करते हैं, सतीनाथ भादुड़ी की तरह शिल्प में नवीनता और आधुनिकता तथा ताराशंकर की तरह स्थानीय रंग को विभूषित करते हैं। इसीलिए प्रेमचंद के द्वारा रेशे-रेशे को उकेरा गया भारतीय ग्राम-समाज ही रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवंत और नये आयाम ग्रहण करता हुए दिखाई पड़ता है।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी के दौर में जिसे नयी-कहानी आंदोलन के नाम से जाना जाता है, ग्राम-कथा बनाम नगर-कथा को लेकर तीखे विवाद चले। रेणु इन तमाम विवादों से परे रहकर कहानियां लिख रहे थे। इसलिए उनकी कहानियों की ओर दृष्टि बहुत बाद में गयी। पहली बार कहानी पत्रिका के 1956 के विशेषांक में डा.नामवर सिंह ने अपने लेख में उनका उल्लेख किया है। वे लिखते हैं-‘निःसंदेह इन (विभिन्न अंचलों या जनपदों के लोक-जीवन को लेकर लिखी गयी) कहानियों में ताजगी है और प्रेमचंद की गांव पर लिखी कहानियों से एक हद तक नवीनता भी।...फणीश्वरनाथ रेणु, मार्कण्डेय, केशव मिश्र, शिव प्रसाद सिंह की कहानियों से इस दिशा में आशा बंधती दिखाई दे रही है।’’ ‘नयी कहानी’ आंदोलन के कथाकारों ने भी बाद में रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया। इनमें प्रमुख हैं-राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि। रेणु के एक दशक पूर्व साहित्य में आये महत्त्वपूर्ण कथाकार यशपाल और अज्ञेय ने भी रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया। कमलेशवर ने रेणु की महत्ता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया-‘‘बीसवीं सदी का यह संजय रूप, गंध, नाद, आकार और बिंबों के माध्यम से ‘महाभारत’ की सारी वास्तविकता, सत्य, घृणा, हिंसा, प्रमाद, मानवीयता, आक्रोश और दुर्घटनाएं बयान करता जा रहा है। उसके ऊंचे माथे पर महर्षि वेदव्यास का आशीष अंकित है।’’ अज्ञेय ने उन्हें ‘धरती का धनी’ कहा है। निर्मल वर्मा रेणु की ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ का उल्लेख करते हुए समकालीन कथाकारों के बीच उन्हें संत की तरह उपस्थित बताते हुए लिखते हैं-‘‘बिहार के छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियति रेखा को उजागर किया।’’
हिंदी कहानी की परंपरा में रेणु के विशिष्ट महत्व को हिंदी कहानी के अधिकांश शीर्षस्थकथाकार स्वीकारते हैं। डा. नामवर सिंह के बाद के आलोचकों में डा. शिवकुमार मिश्र का नाम महत्त्वपूर्ण है। वे अपने प्रसिद्ध निबंध प्रेमचंद की परंपरा और फणीश्वरनाथ रेणु में लिखते हैं-‘‘रेणु हिंदी के उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा-साहित्य को एक लंबे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परंपरा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केंद्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गयी थी।’’ इस प्रकार हम पाते हैं कि रेणु हिंदी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली पंक्ति में परिगणित होते रहे हैं। उनका महत्व आज निर्विवाद घोषित है।
अब रेणु की कहानियों की मूल विशेषताओं पर चर्चा की जाये।
रेणु हिंदी के पहले कथाकार हैं, जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ को यानी मनुष्य के राग-विराग और प्रेम को, दुख और करुणा को हास उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर ‘आत्मा के शिल्पी’ के रूप में उपस्थित होते हैं। साथ ही, वे मनुष्य का चित्रण एक ठोस जमीन पर, एक काल विशेष में करते हैं, पर स्थानीयता या भौगोलिक परिवेश और इतिहास की एक कालावधि में सांस लेते हुए पात्र सार्वदेशिक एवं समकालीन जीवन के मर्म को भी उद्घाटित करते हैं। कहा भी गया है कि रेणु का महत्व सिर्फ आंचलिकता में नहीं, अपितु उसके अतिक्रमण में है।
रेणु का ‘मन मानो सरसों की पोटली’ है। वे अपने कथासूत्रों के रिक्त स्थानों को इसके तीन दानों से भरते हैं। ये ‘तीन बिंदियां’ यानी डॉट-डॉट-डॉट रेणु की कहानियों की सूक्ष्म अंतर्ध्वनियां हैं, यहीं छुपा है उनका कथाकार मन। ये आंखों में नहीं गड़तीं, कथा के प्रवाह को मंद नहीं करतीं। ये अपने भीतर रस का पूरा सागर समेटे हैं।
रेणु अपनी कहानी ‘संवदिया’ के हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दुखी-विपन्न बेसहारा पात्रों का संवाद लेकर पाठकों के सामने उपस्थित होते हैं और उनके विषय में, उनकी पीड़ा के बारे में, उनके हाहाकार को अपने अंतस में छुपाये उनका सही-सही संवाद देने में हिचकिचाते हैं। पर उसकी पूरी अभिव्यक्ति अंततः हो ही जाती है।
रेणु मनुष्य की लीलाओं का भाव-प्रवण चित्रण करते हैं। उनका ध्यान इस पर ज्यादा क्यों है ? मनुष्य के पूरे संघर्षों, उसकी आपद-विपदाओं उसके दुख-दारिद्रय के बीच ये लीलाएं ही उस जीवन को आधार देती हैं उसे टूटने से बचाती हैं, उसकी संघर्षशीलता को बढ़ाती हैं। रेणु की एक कहानी का शीर्षक ही है-‘नित्य लीला।’ यह लीला भाव खासकर उनकी ठुमरी-धर्मा कहानियों में कुछ ज्यादा ही है। इसमें दो विरोधी भाव एक साथ उपस्थित होते हैं। कभी हताशा-निराशा का वातावरण वे सृजित करते हैं, तो कभी हर्ष उल्लास का। इसके बीच प्रकृति की भी अर्थ-छवियां उद्घाटित होती चलती हैं। जीवन और प्रकृति की बारीक से बारीक रेखाओं से निर्मित ये कहानियां एक संगीत की तरह पाठकों के भीतर गूंजती रहती हैं। एक नीच ट्रेजडी में फंसी जिंदगी का चित्रण हमें बल देता है।
रेणु अपनी कहानियों में टूटते जीवन-मूल्यों या विघटन के क्षणों को मूर्त रूप में आंकते हैं, उसकी पीड़ा को व्यंजित करते हैं और नये कि अगुआई दो कदम आगे बढ़कर करते हैं। ‘रसप्रिया’, ‘आत्म-साक्षी’, ‘विघटन के क्षण’, ‘उच्चाटन’ आदि कहानियां बदलते ग्रामीण जीवन के यथार्थ को एक नयी भंगिमा के साथ उद्धाटित करती हैं। ये कहानियां टूटन और विघटन के रेखांकन के साथ ही मनुष्य के हाहाकार को भी व्यंजित करती हैं। रेणु का कथाकार मन इस बदलते हुए परिवेश को चित्रित करता हुआ करुणा से आर्द्र दिखलाई पड़ता है। वे इन स्थितियों को त्रासदी के रूप में लेते हैं। वे त्रस्त और भयावह ग्रामीण परिवेश में ‘पहलवान की ढोलक’ की गमक फिर से गुंजायमान देखना चाहते हैं। वे ‘तॅबे ऍकला चलो रे’ की तरह भूमि संघर्षों और ग्रामीणों को आपसी झगड़ों को समाप्त करने में शहीद किशन महाराज के सही और मानवीय संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ते हैं। नेपथ्य में जी रहे लोक मंचों के कलाकारों को, चाहे रसप्रिया का पंचकौड़ी मिरदंगिया हो, ‘नेपथ्य का अभिनेता’ के पारसी थियेटर का कलाकार या ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ की भित्तिचित्रकार महिला या ‘रसूल मिसतिरी’ का कारीगर, अपनी कहानियों में पुनः प्रतिष्ठित करते हैं।
रेणु की कहानियों का परिवेश ग्राम-जीवन से लेकर शहरी जीवन तक विस्तृत है। उन्होंने जिस कूची से धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर के दुखी-विपन्न जन-जीवन का चित्रण किया है, उसी से शहरी परिवेश की ‘टेबुल’, ‘विकट संकट’, ‘जलवा’, ‘रेखाएं : वृत्तचक्र’, ‘अगिनखोर’ जैसी कहानियां भी लिखी हैं।
ये कहानियां इकहरी नहीं हैं। इनमें मूलकथा के साथ-साथ कई उपकथाएं जुड़ी होती हैं एवं मुख्य पात्रों के साथ उनसे जुड़े अनेक पात्रों का जीवन एक साथ उजागर होता है। वे अपने पात्रों को पूरे परिदृश्य या ‘लैंडस्केप’ के बीच रखकर चित्रित करते हैं।
ये कहानियां किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केंद्र में रखकर नहीं बुनी गयी हैं, अपितु ये सीधे-सीधे हमें जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप से निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है।
रेणु की कहानियों का परिवेश जाना-चीन्हा होते हुए भी आकर्षित करता है। इन कहानियों को पढ़ते वक्त यह लगता है कि यह पहली बार घटित हो रहा है। कारण यह कि परिवेश के निर्माण में जो गंधवाही चेतना, रंगों एवं ध्वनियों का योग है, वह साधारण जीवन में हम अनुभव नहीं कर पाते। रेणु असल कला-साधना के लिए गीतों में गंध की संधान की बात करते हैं (तीन बिंदियां) और अपने कथा-चित्रों को सजीवता प्रदान करने के लिए उसे संगीत और ध्वनियों से लैस, करते हैं। इसीलिए इन कहानियों के परिपार्श्व में कभी मौन और कभी मुखर एक संगीत की अनगूंज सुनायी पड़ती है।
रेणु की कथा-भाषा लोकभाषा की नींव पर खड़ी की गयी है यह भाषा मध्यकाल के संत-भक्त कवि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी आदि-की भाषा के सर्वाधिक करीब है। रेणु की भाषा एक पहाड़ी झरने की तरह प्रवाहित होती रहती है, पर उसकी गति, लय प्रवाह और संगीत में लगातार परिवर्तन होता चलता है।
रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास, ‘मैला आंचल’ का प्रकाशन अगस्त 1954 में हुआ था, और उसके ठीक दस वर्ष पूर्व अगस्त, 1944 में उनकी पहली कहानी ‘बटबाबा’ साप्ताहिक ‘विश्वमित्र’ (कलकत्ता) में छपी थी। यानी रेणु की कहानियां ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के दस वर्ष पहले से ही छपने लगी थीं। पांचवें दशक में उनकी अनेक महत्त्वपूर्ण कहानियां प्रकाशित हुईं। ये कहानियां ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ के प्रौढ़ कथा-शिल्पी की ही कहानियां थीं, जिनमें एक बड़े कलाकार के रूप में आकार ग्रहण करने वाले लेखक की कला-सजग आंखें, गहरी मानवीय संवेदना, बदलते सामाजिक एवं राजनीतिक मूल्यों की मजबूत पकड़ वैसी ही थी, जैसी उनकी बाद की रचनाओं में दिखाई पड़ती है। मगर ‘मैला आंचल’ और ‘परती-परिकथा’ की अपार लोकप्रियता और इन दोनों उपन्यासों पर प्रारंभ से ही उत्पन्न विवादों एवं बहसों के फलस्वरूप रेणु की कहानियों का अपेक्षित मूल्यांकन नहीं हो पाया।
रेणु की कहानियां अपनी बुनावट या संरचना, स्वभाव या प्रकृति शिल्प और स्वाद में हिंदी कहानी की परंपरा में एक अलग और नयी पहचान लेकर उपस्थित होती हैं। अंततः एक नयी कथा-धारा का प्रारंभ इनसे होता है। ये कहानियां प्रेमचंद की जमीन पर होते हुए भी, जितनी प्रेमचंद की कहानियों से भिन्न हैं उतनी ही अपने समकालीन कथाकारों की कहानियों से। इसीलिए रेणु की कहानियों के सही मूल्यांकन के लिए एक नये सौंदर्य-शास्त्र निर्मित करने की आवश्यकता है।
रेणु ने जिन कथाकारों से प्रेरणा ग्रहण की, वे हैं रूसी कथाकार मिखाइल शोलोखोव, बंगला कथाकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सतीनाथ भादुड़ी तथा हिंदी के महान कथाकार प्रेमचंद। रेणु की कहानियों पर इन चारों का मिलाजुला प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसीलिए प्रेमचंद द्वारा निर्मित कथा-भूमि को वे ग्रहण करते हैं, पर उसमें शोलोखोव की तरह सांस्कृतिक गरिमा को मंडित करते हैं, सतीनाथ भादुड़ी की तरह शिल्प में नवीनता और आधुनिकता तथा ताराशंकर की तरह स्थानीय रंग को विभूषित करते हैं। इसीलिए प्रेमचंद के द्वारा रेशे-रेशे को उकेरा गया भारतीय ग्राम-समाज ही रेणु की कलम से इतना रससिक्त, प्राणवंत और नये आयाम ग्रहण करता हुए दिखाई पड़ता है।
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी के दौर में जिसे नयी-कहानी आंदोलन के नाम से जाना जाता है, ग्राम-कथा बनाम नगर-कथा को लेकर तीखे विवाद चले। रेणु इन तमाम विवादों से परे रहकर कहानियां लिख रहे थे। इसलिए उनकी कहानियों की ओर दृष्टि बहुत बाद में गयी। पहली बार कहानी पत्रिका के 1956 के विशेषांक में डा.नामवर सिंह ने अपने लेख में उनका उल्लेख किया है। वे लिखते हैं-‘निःसंदेह इन (विभिन्न अंचलों या जनपदों के लोक-जीवन को लेकर लिखी गयी) कहानियों में ताजगी है और प्रेमचंद की गांव पर लिखी कहानियों से एक हद तक नवीनता भी।...फणीश्वरनाथ रेणु, मार्कण्डेय, केशव मिश्र, शिव प्रसाद सिंह की कहानियों से इस दिशा में आशा बंधती दिखाई दे रही है।’’ ‘नयी कहानी’ आंदोलन के कथाकारों ने भी बाद में रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया। इनमें प्रमुख हैं-राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा, भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि। रेणु के एक दशक पूर्व साहित्य में आये महत्त्वपूर्ण कथाकार यशपाल और अज्ञेय ने भी रेणु को श्रेष्ठ कथाकार के रूप में रेखांकित किया। कमलेशवर ने रेणु की महत्ता को इन शब्दों में प्रतिपादित किया-‘‘बीसवीं सदी का यह संजय रूप, गंध, नाद, आकार और बिंबों के माध्यम से ‘महाभारत’ की सारी वास्तविकता, सत्य, घृणा, हिंसा, प्रमाद, मानवीयता, आक्रोश और दुर्घटनाएं बयान करता जा रहा है। उसके ऊंचे माथे पर महर्षि वेदव्यास का आशीष अंकित है।’’ अज्ञेय ने उन्हें ‘धरती का धनी’ कहा है। निर्मल वर्मा रेणु की ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ का उल्लेख करते हुए समकालीन कथाकारों के बीच उन्हें संत की तरह उपस्थित बताते हुए लिखते हैं-‘‘बिहार के छोटे भूखंड की हथेली पर उन्होंने समूचे उत्तरी भारत के किसान की नियति रेखा को उजागर किया।’’
हिंदी कहानी की परंपरा में रेणु के विशिष्ट महत्व को हिंदी कहानी के अधिकांश शीर्षस्थकथाकार स्वीकारते हैं। डा. नामवर सिंह के बाद के आलोचकों में डा. शिवकुमार मिश्र का नाम महत्त्वपूर्ण है। वे अपने प्रसिद्ध निबंध प्रेमचंद की परंपरा और फणीश्वरनाथ रेणु में लिखते हैं-‘‘रेणु हिंदी के उन कथाकारों में हैं, जिन्होंने आधुनिकतावादी फैशन की परवाह न करते हुए, कथा-साहित्य को एक लंबे अर्से के बाद प्रेमचंद की उस परंपरा से फिर जोड़ा जो बीच में मध्यवर्गीय नागरिक जीवन की केंद्रीयता के कारण भारत की आत्मा से कट गयी थी।’’ इस प्रकार हम पाते हैं कि रेणु हिंदी के श्रेष्ठ कथाकारों की अगली पंक्ति में परिगणित होते रहे हैं। उनका महत्व आज निर्विवाद घोषित है।
अब रेणु की कहानियों की मूल विशेषताओं पर चर्चा की जाये।
रेणु हिंदी के पहले कथाकार हैं, जो ‘प्राणों में घुले हुए रंग’ और ‘मन के रंग’ को यानी मनुष्य के राग-विराग और प्रेम को, दुख और करुणा को हास उल्लास और पीड़ा को अपनी कहानियों में एक साथ लेकर ‘आत्मा के शिल्पी’ के रूप में उपस्थित होते हैं। साथ ही, वे मनुष्य का चित्रण एक ठोस जमीन पर, एक काल विशेष में करते हैं, पर स्थानीयता या भौगोलिक परिवेश और इतिहास की एक कालावधि में सांस लेते हुए पात्र सार्वदेशिक एवं समकालीन जीवन के मर्म को भी उद्घाटित करते हैं। कहा भी गया है कि रेणु का महत्व सिर्फ आंचलिकता में नहीं, अपितु उसके अतिक्रमण में है।
रेणु का ‘मन मानो सरसों की पोटली’ है। वे अपने कथासूत्रों के रिक्त स्थानों को इसके तीन दानों से भरते हैं। ये ‘तीन बिंदियां’ यानी डॉट-डॉट-डॉट रेणु की कहानियों की सूक्ष्म अंतर्ध्वनियां हैं, यहीं छुपा है उनका कथाकार मन। ये आंखों में नहीं गड़तीं, कथा के प्रवाह को मंद नहीं करतीं। ये अपने भीतर रस का पूरा सागर समेटे हैं।
रेणु अपनी कहानी ‘संवदिया’ के हरगोबिन संवदिया की तरह अपने अंचल के दुखी-विपन्न बेसहारा पात्रों का संवाद लेकर पाठकों के सामने उपस्थित होते हैं और उनके विषय में, उनकी पीड़ा के बारे में, उनके हाहाकार को अपने अंतस में छुपाये उनका सही-सही संवाद देने में हिचकिचाते हैं। पर उसकी पूरी अभिव्यक्ति अंततः हो ही जाती है।
रेणु मनुष्य की लीलाओं का भाव-प्रवण चित्रण करते हैं। उनका ध्यान इस पर ज्यादा क्यों है ? मनुष्य के पूरे संघर्षों, उसकी आपद-विपदाओं उसके दुख-दारिद्रय के बीच ये लीलाएं ही उस जीवन को आधार देती हैं उसे टूटने से बचाती हैं, उसकी संघर्षशीलता को बढ़ाती हैं। रेणु की एक कहानी का शीर्षक ही है-‘नित्य लीला।’ यह लीला भाव खासकर उनकी ठुमरी-धर्मा कहानियों में कुछ ज्यादा ही है। इसमें दो विरोधी भाव एक साथ उपस्थित होते हैं। कभी हताशा-निराशा का वातावरण वे सृजित करते हैं, तो कभी हर्ष उल्लास का। इसके बीच प्रकृति की भी अर्थ-छवियां उद्घाटित होती चलती हैं। जीवन और प्रकृति की बारीक से बारीक रेखाओं से निर्मित ये कहानियां एक संगीत की तरह पाठकों के भीतर गूंजती रहती हैं। एक नीच ट्रेजडी में फंसी जिंदगी का चित्रण हमें बल देता है।
रेणु अपनी कहानियों में टूटते जीवन-मूल्यों या विघटन के क्षणों को मूर्त रूप में आंकते हैं, उसकी पीड़ा को व्यंजित करते हैं और नये कि अगुआई दो कदम आगे बढ़कर करते हैं। ‘रसप्रिया’, ‘आत्म-साक्षी’, ‘विघटन के क्षण’, ‘उच्चाटन’ आदि कहानियां बदलते ग्रामीण जीवन के यथार्थ को एक नयी भंगिमा के साथ उद्धाटित करती हैं। ये कहानियां टूटन और विघटन के रेखांकन के साथ ही मनुष्य के हाहाकार को भी व्यंजित करती हैं। रेणु का कथाकार मन इस बदलते हुए परिवेश को चित्रित करता हुआ करुणा से आर्द्र दिखलाई पड़ता है। वे इन स्थितियों को त्रासदी के रूप में लेते हैं। वे त्रस्त और भयावह ग्रामीण परिवेश में ‘पहलवान की ढोलक’ की गमक फिर से गुंजायमान देखना चाहते हैं। वे ‘तॅबे ऍकला चलो रे’ की तरह भूमि संघर्षों और ग्रामीणों को आपसी झगड़ों को समाप्त करने में शहीद किशन महाराज के सही और मानवीय संघर्ष के पथ पर आगे बढ़ते हैं। नेपथ्य में जी रहे लोक मंचों के कलाकारों को, चाहे रसप्रिया का पंचकौड़ी मिरदंगिया हो, ‘नेपथ्य का अभिनेता’ के पारसी थियेटर का कलाकार या ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ की भित्तिचित्रकार महिला या ‘रसूल मिसतिरी’ का कारीगर, अपनी कहानियों में पुनः प्रतिष्ठित करते हैं।
रेणु की कहानियों का परिवेश ग्राम-जीवन से लेकर शहरी जीवन तक विस्तृत है। उन्होंने जिस कूची से धूसर, वीरान, अंतहीन प्रांतर के दुखी-विपन्न जन-जीवन का चित्रण किया है, उसी से शहरी परिवेश की ‘टेबुल’, ‘विकट संकट’, ‘जलवा’, ‘रेखाएं : वृत्तचक्र’, ‘अगिनखोर’ जैसी कहानियां भी लिखी हैं।
ये कहानियां इकहरी नहीं हैं। इनमें मूलकथा के साथ-साथ कई उपकथाएं जुड़ी होती हैं एवं मुख्य पात्रों के साथ उनसे जुड़े अनेक पात्रों का जीवन एक साथ उजागर होता है। वे अपने पात्रों को पूरे परिदृश्य या ‘लैंडस्केप’ के बीच रखकर चित्रित करते हैं।
ये कहानियां किसी आइडिया या विचार या आदर्श को केंद्र में रखकर नहीं बुनी गयी हैं, अपितु ये सीधे-सीधे हमें जीवन में उतारती हैं। इसलिए इन कहानियों से सरलीकृत रूप से निष्कर्ष निकालना जरा कठिन है।
रेणु की कहानियों का परिवेश जाना-चीन्हा होते हुए भी आकर्षित करता है। इन कहानियों को पढ़ते वक्त यह लगता है कि यह पहली बार घटित हो रहा है। कारण यह कि परिवेश के निर्माण में जो गंधवाही चेतना, रंगों एवं ध्वनियों का योग है, वह साधारण जीवन में हम अनुभव नहीं कर पाते। रेणु असल कला-साधना के लिए गीतों में गंध की संधान की बात करते हैं (तीन बिंदियां) और अपने कथा-चित्रों को सजीवता प्रदान करने के लिए उसे संगीत और ध्वनियों से लैस, करते हैं। इसीलिए इन कहानियों के परिपार्श्व में कभी मौन और कभी मुखर एक संगीत की अनगूंज सुनायी पड़ती है।
रेणु की कथा-भाषा लोकभाषा की नींव पर खड़ी की गयी है यह भाषा मध्यकाल के संत-भक्त कवि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी आदि-की भाषा के सर्वाधिक करीब है। रेणु की भाषा एक पहाड़ी झरने की तरह प्रवाहित होती रहती है, पर उसकी गति, लय प्रवाह और संगीत में लगातार परिवर्तन होता चलता है।
भारत यायावर
पहलवान की ढोलक
जाड़े का दिन। अमावस्या की रात ठंडी और काली। मलेरिया और हैजे से पीड़ित
गांव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर कांप रहा था। पुरानी और उजड़ी बांस-फूस
की झोंपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य ! अंधेरा और
निस्तब्धता !
अंधेरी रात चुपचाप आंसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते थे।
सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गांव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज, हरे राम ! हे भगवान की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से मां-मां’ पुकार कर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी।
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को ताल ठोककर, ललकारती रहती थी-सिर्फ पहलवान की ढोलक ! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती चट्-धा, गिड़-धा,.... चट्-धा, गिड़-धा !’ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा !’ बीच बीच में चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट-धा !’ यानी उठाकर पटक दे ! उठाकर पटक दे !!’
यही आवाज मृत-गांव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टन सिंह पहलवान !
यों तो वह कहा करता था-लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते हैं, किंतु उसके ‘होल इंडिया’ की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो। जिले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी मां-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूधपीता और कसरत किया करता था। गांव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे, लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बांहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी, में कदम रखते ही वह गांव में सबसे अच्छ पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भांति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था।
एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दांव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल ललकारती हुई आवाज ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में शेर के बच्चे को चुनौती दे दी।
शेर के बच्चे का असल नाम था चांद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लंगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबड़ाते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए भी चांद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
श्यामनगर के दंगल और शिकार प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बातें कर ही रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। सम्मान-प्राप्त चांद सिंह पहले तो किंचित, उसकी स्पर्धा पर मुस्कुराया। फिर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा।
शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गयी पागल है पागल मरा ऐं, मरा-मरा !’....पर वह रे बहादुर ! लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को संभालकर निकल कर उठ खड़ा हुआ और पैतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपए का नोट देकर कहने लगे-‘‘जाओ, मेला देखकर घर जाओ !...’’
‘‘नहीं सरकार, लड़ेंगे...हुकुम हो सरकार...!’’
‘‘तुम पागल हो, ...जाओ !’’
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया-‘‘देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से ! सरकार इतना समझा रहे हैं...!!’’
‘‘दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊंगा...मिले हुकुम !’’ वह हाथ जोड़कर गिड़गिडाता रहा था।
भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गये थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-‘‘उसे लड़ने दिया जाये !’’
अकेला चांद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुस्कुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाजा उसे मिल गया था।
विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी-‘‘लड़ने दो !’’
बाजे बजने लगे। दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बंद करके दौड़े-‘‘चांद सिंह की जोड़ी चांद की कुश्ती हो रही है !’’
‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा-गिड़ धा...’
भारी आवाज में एक ढोल-जो अब तक चुप था। बोलने लगा-
ढाक्-ढिना ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना...’’
(अर्थात् वाह पट्ठे वाह पट्ठे !!)
लुट्टन को चांद ने कसकर दबा लिया था।
-अरे गया-गया !!’’ दर्शकों ने तालियां बजायीं-हलुआ हो जायेगा, हलुआ ! हंसी-खेल नहीं शेर का बच्चा है...बच्चू !’’
‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा-गिड़ धा...’
(मत डरना, मत डरना, मत डरना...)
लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चांद ‘चित्त’ करने की कोशिश कर रहा था।
‘‘वहीं दफना दे, बहादुर !’’ बादल सिंह अपने शिष्य को उत्साहित कर रहा था।
लुट्टन की आंखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चांद के पक्ष में था। सभी चांद को शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज थी, जिसके ताल पर वह अपनी शक्ति और दांव-पेंच की परीक्षा ले रहा था-अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज सुनायी पडी-
‘धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना....!!’’
लुट्टन को स्पष्ट सुनायी पड़ा, ढोल कह रहा था-‘‘दांव काटो, बाहर हो जा, दांव काटो बाहर हो जा !!’’
लोगों के आश्चर्य सीमा नहीं रही, लुट्टन दांव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चांद की गर्दन पकड़ ली।
‘‘वाह रे मिट्टी के शेर ! ’’
‘‘अच्छा ! बाहर निकल आया ? इसीलिए तो...!’’ जनमत बदल रहा था।
मोटी और भोंड़ी आवाज वाला ढोल बज उठा-चटाक्-चट्-धा चटाक्-चट्-धा...’
(उठा पटक दे ! उठा पटक दे !!)
लुट्टन ने चालाकी से दांव और जोर लगाकर चांद को जमीन पर दे मारा।
‘धिक-धिना, धिक-धिना ! (अर्थात् चित करो, चित करो !!)
लुट्टन ने अंतिम जोर लगाया-चांद सिंह चारों खाने चित हो रहा।
धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़’...(वाह बहादुर ! वाह बहादुर !! वाह बहादुर !!)
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी कि किसकी जय-ध्वनि की जाये। फलतः अपनी अपनी इच्छानुसार किसी ने ‘मां दुर्गा की’, किसी ने ‘महावीर जी की’, कुछ ने राजा श्यामानंद की जय-ध्वनि की। अंत में सम्मिलित ‘जय’ ! से आकाश गूंज उठा।
विजय लुट्टन कूदता फांदता ताल ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रमाण किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गये। मैनेजर साहब ने आपत्ति की-‘‘हें-हें
अरे रे ।’’ किंतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा-‘‘जीते रहो, बहादुर ! तुमने मिट्टी की लाज रख ली !’’
पंजाबी पहलवानों की जमायत चांद सिंह की आंखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुंह बिचकाया-‘‘हुजूर ! जाति का दुसाध सिंह !’’
मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। क्लीन शेब्ड चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी पूरी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-‘‘हां सरकार, यह अन्याय है।’’
राजा साहब ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-‘‘उसने क्षत्रिय का काम किया है।’’
अंधेरी रात चुपचाप आंसू बहा रही थी। निस्तब्धता करुण सिसकियों और आहों को बलपूर्वक अपने हृदय में ही दबाने की चेष्टा कर रही थी। आकाश में तारे चमक रहे थे। पृथ्वी पर कहीं प्रकाश का नाम नहीं। आकाश से टूटकर यदि कोई भावुक तारा पृथ्वी पर जाना भी चाहता तो उसकी ज्योति और शक्ति रास्ते में ही शेष हो जाती थी। अन्य तारे उसकी भावुकता अथवा असफलता पर खिलखिलाकर हंस पड़ते थे।
सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी। गांव की झोंपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज, हरे राम ! हे भगवान की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से मां-मां’ पुकार कर रो पड़ते थे। पर इससे रात्रि की निस्तब्धता में विशेष बाधा नहीं पड़ती थी।
कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।
रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को ताल ठोककर, ललकारती रहती थी-सिर्फ पहलवान की ढोलक ! संध्या से लेकर प्रातःकाल तक एक ही गति से बजती रहती चट्-धा, गिड़-धा,.... चट्-धा, गिड़-धा !’ यानी ‘आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा !’ बीच बीच में चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट-धा !’ यानी उठाकर पटक दे ! उठाकर पटक दे !!’
यही आवाज मृत-गांव में संजीवनी शक्ति भरती रहती थी।
लुट्टन सिंह पहलवान !
यों तो वह कहा करता था-लुट्टन सिंह पहलवान को होल इंडिया भर के लोग जानते हैं, किंतु उसके ‘होल इंडिया’ की सीमा शायद एक जिले की सीमा के बराबर ही हो। जिले भर के लोग उसके नाम से अवश्य परिचित थे।
लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी मां-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल पोस कर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूधपीता और कसरत किया करता था। गांव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ दिया करते थे, लुट्टन के सिर पर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बांहों को सुडौल तथा मांसल बना दिया था। जवानी, में कदम रखते ही वह गांव में सबसे अच्छ पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर 45 डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भांति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ता था।
एक बार वह ‘दंगल’ देखने श्यामनगर मेला गया। पहलवानों की कुश्ती और दांव-पेंच देखकर उससे नहीं रहा गया। जवानी की मस्ती और ढोल ललकारती हुई आवाज ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे दंगल में शेर के बच्चे को चुनौती दे दी।
शेर के बच्चे का असल नाम था चांद सिंह। वह अपने गुरु पहलवान बादल सिंह के साथ, पंजाब से पहले-पहल श्यामनगर मेले में आया था। सुंदर जवान, अंग-प्रत्यंग से सुंदरता टपक पड़ती थी। तीन दिनों में ही पंजाबी और पठान पहलवानों के गिरोह के अपनी जोड़ी और उम्र के सभी पट्ठों को पछाड़कर उसने ‘शेर के बच्चे’ की टायटिल प्राप्त कर ली थी। इसलिए वह दंगल के मैदान में लंगोट लगाकर एक अजीब किलकारी भरकर छोटी दुलकी लगाया करता था। देशी नौजवान पहलवान, उससे लड़ने की कल्पना से भी घबड़ाते थे। अपनी टायटिल को सत्य प्रमाणित करने के लिए भी चांद सिंह बीच-बीच में दहाड़ता फिरता था।
श्यामनगर के दंगल और शिकार प्रिय वृद्ध राजा साहब उसे दरबार में रखने की बातें कर ही रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। सम्मान-प्राप्त चांद सिंह पहले तो किंचित, उसकी स्पर्धा पर मुस्कुराया। फिर बाज की तरह उस पर टूट पड़ा।
शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गयी पागल है पागल मरा ऐं, मरा-मरा !’....पर वह रे बहादुर ! लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को संभालकर निकल कर उठ खड़ा हुआ और पैतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। अंत में, उसकी हिम्मत की प्रशंसा करते हुए, दस रुपए का नोट देकर कहने लगे-‘‘जाओ, मेला देखकर घर जाओ !...’’
‘‘नहीं सरकार, लड़ेंगे...हुकुम हो सरकार...!’’
‘‘तुम पागल हो, ...जाओ !’’
मैनेजर साहब से लेकर सिपाहियों तक ने धमकाया-‘‘देह में गोश्त नहीं, लड़ने चला है शेर के बच्चे से ! सरकार इतना समझा रहे हैं...!!’’
‘‘दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटककर मर जाऊंगा...मिले हुकुम !’’ वह हाथ जोड़कर गिड़गिडाता रहा था।
भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गये थे। पंजाबी पहलवानों की जमायत क्रोध से पागल होकर लुट्टन पर गालियों की बौछार कर रही थी। दर्शकों की मंडली उत्तेजित हो रही थी। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था-‘‘उसे लड़ने दिया जाये !’’
अकेला चांद सिंह मैदान में खड़ा व्यर्थ मुस्कुराने की चेष्टा कर रहा था। पहली पकड़ में ही अपने प्रतिद्वंद्वी की शक्ति का अंदाजा उसे मिल गया था।
विवश होकर राजा साहब ने आज्ञा दे दी-‘‘लड़ने दो !’’
बाजे बजने लगे। दर्शकों में फिर उत्तेजना फैली। कोलाहल बढ़ गया। मेले के दुकानदार दुकान बंद करके दौड़े-‘‘चांद सिंह की जोड़ी चांद की कुश्ती हो रही है !’’
‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा-गिड़ धा...’
भारी आवाज में एक ढोल-जो अब तक चुप था। बोलने लगा-
ढाक्-ढिना ढाक्-ढिना, ढाक्-ढिना...’’
(अर्थात् वाह पट्ठे वाह पट्ठे !!)
लुट्टन को चांद ने कसकर दबा लिया था।
-अरे गया-गया !!’’ दर्शकों ने तालियां बजायीं-हलुआ हो जायेगा, हलुआ ! हंसी-खेल नहीं शेर का बच्चा है...बच्चू !’’
‘चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा-गिड़ धा...’
(मत डरना, मत डरना, मत डरना...)
लुट्टन की गर्दन पर केहुनी डालकर चांद ‘चित्त’ करने की कोशिश कर रहा था।
‘‘वहीं दफना दे, बहादुर !’’ बादल सिंह अपने शिष्य को उत्साहित कर रहा था।
लुट्टन की आंखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने-फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चांद के पक्ष में था। सभी चांद को शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन के पक्ष में सिर्फ ढोल की आवाज थी, जिसके ताल पर वह अपनी शक्ति और दांव-पेंच की परीक्षा ले रहा था-अपनी हिम्मत को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज सुनायी पडी-
‘धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना....!!’’
लुट्टन को स्पष्ट सुनायी पड़ा, ढोल कह रहा था-‘‘दांव काटो, बाहर हो जा, दांव काटो बाहर हो जा !!’’
लोगों के आश्चर्य सीमा नहीं रही, लुट्टन दांव काटकर बाहर निकला और तुरंत लपककर उसने चांद की गर्दन पकड़ ली।
‘‘वाह रे मिट्टी के शेर ! ’’
‘‘अच्छा ! बाहर निकल आया ? इसीलिए तो...!’’ जनमत बदल रहा था।
मोटी और भोंड़ी आवाज वाला ढोल बज उठा-चटाक्-चट्-धा चटाक्-चट्-धा...’
(उठा पटक दे ! उठा पटक दे !!)
लुट्टन ने चालाकी से दांव और जोर लगाकर चांद को जमीन पर दे मारा।
‘धिक-धिना, धिक-धिना ! (अर्थात् चित करो, चित करो !!)
लुट्टन ने अंतिम जोर लगाया-चांद सिंह चारों खाने चित हो रहा।
धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़, धा-गिड़-गिड़’...(वाह बहादुर ! वाह बहादुर !! वाह बहादुर !!)
जनता यह स्थिर नहीं कर सकी कि किसकी जय-ध्वनि की जाये। फलतः अपनी अपनी इच्छानुसार किसी ने ‘मां दुर्गा की’, किसी ने ‘महावीर जी की’, कुछ ने राजा श्यामानंद की जय-ध्वनि की। अंत में सम्मिलित ‘जय’ ! से आकाश गूंज उठा।
विजय लुट्टन कूदता फांदता ताल ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रमाण किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब के कीमती कपड़े मिट्टी में सन गये। मैनेजर साहब ने आपत्ति की-‘‘हें-हें
अरे रे ।’’ किंतु राजा साहब ने स्वयं उसे छाती से लगाकर गद्गद होकर कहा-‘‘जीते रहो, बहादुर ! तुमने मिट्टी की लाज रख ली !’’
पंजाबी पहलवानों की जमायत चांद सिंह की आंखें पोंछ रही थी। लुट्टन को राजा साहब ने पुरस्कृत ही नहीं किया, अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया और राजा साहब उसे लुट्टन सिंह कहकर पुकारने लगे। राज-पंडितों ने मुंह बिचकाया-‘‘हुजूर ! जाति का दुसाध सिंह !’’
मैनेजर साहब क्षत्रिय थे। क्लीन शेब्ड चेहरे को संकुचित करते हुए, अपनी पूरी शक्ति लगाकर नाक के बाल उखाड़ रहे थे। चुटकी से अत्याचारी बाल को रगड़ते हुए बोले-‘‘हां सरकार, यह अन्याय है।’’
राजा साहब ने मुस्कुराते हुए सिर्फ इतना ही कहा-‘‘उसने क्षत्रिय का काम किया है।’’
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