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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"तब तो भाभी का यहां उपस्थित रहना और भी आवश्यक है। नहीं तो मेरा कलंक धुलेगा कैसे।" उद्धव बोले, "देखिये भाभी! मैं यह कह रहा था कि भक्ति एक भावना है, इसलिए उससे जो उपलब्धि होती है, वह भावनात्मक धरातल पर ही होती है। व्यावहारिक धरातल पर उपलब्धि के लिए कर्म के धरातल पर उतरना पड़ता है। देखिये! देवकी काकी कारागार में भी भक्ति ही करती रहीं, किन्तु अपनी किसी सन्तान को बचा नहीं पायीं; किन्तु काका ने जब गर्गाचार्य के माध्यम से नन्दबाबा से सम्पर्क किया, योजना बनायी और वासुदेव को लेकर कारागार से बाहर यमुना पार पहुंचाने का उद्यम किया तो वे बच गये और उन्हीं के हाथों अपने माता-पिता की ही नहीं, समस्त यादवों की मुक्ति हुई।"

"तो फिर भक्ति का लाभ क्या हुआ?" रुक्मिणी बोली, "मुख्य तो कर्म ही हुआ। व्यक्ति कर्म ही करे।"

"तुम क्या कहते हो कृष्ण?" सुदामा ने पूछा, "व्यक्तिगत रूप से मुझे तो भक्ति ने बहुत उलझा रखा है। एक योगियों की भक्ति है। एक यज्ञ का कर्मकाण्ड है, एक पूजा का विधि-विधान है; मैं सोचता हूं तो लगता है कि योगी ध्यान करता है, यज्ञकर्ता एक संकल्प करता है, माला के मनके फेरने वाला स्मरण करता है। क्या यह सब भक्ति है? और फिर मेरे मन में कहीं यह सन्देह भी है कि भक्ति से सांसारिक सफलताएं मिल सकती हैं क्या? यदि भक्तों के अनुसार हम यह मान लें कि भक्ति से भक्त की मनोकामनाएं पूरी होती हैं और मनोकामनाएं तो सबकी सब सांसारिक हैं; हमें यह भी मानना पड़ेगा कि भक्ति से ही सांसारिक मनोकामनाएं पूरी होती हैं। पर यदि ईश्वर हमसे भक्ति ही चाहता है तो उसने यह नियम क्यों नहीं बना दिया कि प्रतिदिन एक निश्चित अवधि तक भक्ति करने पर ही मनुष्य को भोजन मिलेगा? दूसरी ओर मैं यह भी सोचता हूं कि भक्तों को मैंने सदा सुखी ही तो नहीं देखा। भक्त लोग भी उतना ही कष्ट पाते हैं-जितना कि अन्य लोग। वे भूख से भी तड़पते हैं और रोग से भी। तो भक्ति का क्या लाभ? भक्ति से क्या मिलता है मनुष्य को?" सुदामा ने रुककर कृष्ण की ओर देखा।

"मैं भक्ति को सर्वथा व्यर्थ तो नहीं मानता, पर स्वयं को उद्धव के चिन्तन के काफी निकट पाता हूं।" कृष्ण धीरे-से बोले, "भक्ति भावना है और ज्ञान चिन्तन । यदि व्यक्ति चाहे तो उनका समाहार कर्म में कर सकता है। प्रकृति ने, जिसे सुदामा ने ईश्वर कहा है, यह नियम तो नहीं बनाया कि अन्न उपजाने के लिए किसी अलौकिक सत्ता की भक्ति करनी होगी; पर यह नियम अवश्य बनाया है कि अन्न उपजाने के लिए धरती पर श्रम करना होगा।" कृष्ण ने रुककर उद्धव की ओर देखा, "पर भावना के रूप में भी भक्ति सर्वथा निष्फल नहीं है। किसान यदि धरती के प्रति भक्ति-भाव रखता है तो वह उसे जोतते, बोते, काटते हुए इस बात का ध्यान रखता है कि वह धरती की उर्वरा शक्ति बनाये रखे, उसे क्षीण न होने दे। कृषि-शास्त्री धरती की पूजा करता है तो दिन-रात मिट्टी के कणों का परीक्षण और प्रयोग करता है, सिंचाई का चिन्तन करता है, बीजों के प्रकारों का अध्ययन करता है। अतः वे लोग अपनी इस भक्ति के कारण, धरती से अधिक अन्न पाने में सफल होते हैं। पर यदि वे लोग अपने पसीने के स्थान पर धूप, दीप और चन्दन से धरती की पूजा करते हैं तो उन्हें कोई लाभ नहीं होता। यह वैसे ही है कि सुदामा दिन-रात पोथियों और विचारों से सिर मारता है तो ज्ञान पाता है। यदि यह सरस्वती की मूर्ति बनाकर उसकी आरती उतारता रहे तो इससे बड़ा बौड़म कोई न होगा।"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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