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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"पूरी बात तो सुनो भाई!" उद्धव अपने गम्भीर स्वर में बोले, "राधा के अनुसार तो उसे अपने मनभावन की प्राप्ति हो गयी है। उससे अधिक की उसे आकांक्षा भी नहीं है। पर दूसरी ओर हमारी रुक्मिणी भाभी हैं। वे भी कृष्ण की भक्ति करती हैं। पर उन्होंने केवल भक्ति ही नहीं की, उनकी कामना भावात्मक धरातल पर ही नहीं रही, वे सक्रिय हुईं। उन्होंने अपने भाई और पिता का विरोध किया। किसी अन्य पुरुष से विवाह न करने पर तुली रहीं। कृष्ण को सन्देश भिजवाया-अर्थात् उन्होंने कर्म किया और उन्हें कृष्ण प्राप्त हुए...।"

"किसे प्राप्त हुए?" कक्ष में प्रवेश करती हुई रुक्मिणी ने पूछा।

"बड़े समय से आयीं।" कृष्ण मुस्कराए, "तुम्हारी ही चर्चा हो रही थी।"

"तो मेरी पीठ पीछे निन्दा हो रही थी। क्यों देवरजी?" वे सुदामा की ओर मुड़ीं, "क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है?"

"अरे भाभी! क्यों मुझ पर पाप लादती हैं।" सुदामा ने बड़े सहज और आत्मीय भाव से हाथ जोड़ दिये, "मैं तो उद्धव की चर्चा अवाक् होकर सुन रहा हूं।"

"अवाक्!' कृष्ण हंसे, "बिल्कुल ठीक शब्दों में कहा है सुदामा ने, अवाक्!"

"आप लोग आज सोएंगे नहीं क्या?" रुक्मिणी ने विषय बदल दिया।

"सोएंगे," कृष्ण कुछ लीलापूर्वक मुस्कराए, "मैं और सुदामा यहीं सोएंगे। अधिक देर हो गयी तो उद्धव को भी यहीं सुला लेंगे।"

"तो आज गप्प-गोष्ठी चलेगी।" रुक्मिणी भी एक आसन पर निश्चिन्त भाव से बैठ गयीं, "यदि इस पुरुष समुदाय को आपत्ति न हो तो यह स्त्री भी थोड़ी देर यहां ज्ञान-चर्चा सुन ले।"

"तब तो आपको निराशा होगी। यहां ज्ञान-चर्चा नहीं, भक्ति-चर्चा हो रही है।"

"भक्ति-चर्चा हो या ज्ञान-चर्चा। अब रुक्मिणी यहीं बैठेगी, क्योंकि उसे सन्देह हो गया है कि उद्धव उसकी निन्दा कर रहा था।" कृष्ण हंसे।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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