पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"तुम लोग क्या कर रहे हो, इसकी सूचना मुझ तक तो किसी-न-किसी रूप में पहुंच ही जाती है।" सुदामा ने कहा, "कठिनाई तुम्हें होगी, मेरा समाचार कौन लायेगा यहां।"
कृष्ण हंसे, "यह मत सोचो। हमें तुम्हारी सारी सूचनाएं रहती हैं। आगे भी
रहेंगी।"
सुदामा के मन में आया, कहें, 'जब तुम्हें सूचना थी तो मेरी सहायता को क्यों नहीं आये। पर फिर चुप ही रह गये-उन्हें भी तो कृष्ण की कठिनाइयों, कष्टों तथा जोखिमों की सूचनाएं मिलती रहती हैं; वे ही कब-कब कृष्ण की सहायता को आये...'
"तो उद्धव का विकास जान लें,' सुदामा ने स्वयं को सन्तुलित किया, "मैंने सुना था कि उद्धव जब ब्रज में गोपियों से मिलकर आये तो उनका ज्ञान-मार्ग डोल गया और ये भक्ति की ओर आकृष्ट हो गये?"
"हां! कुछ संशय तो पैदा हुआ है।" उद्धव का स्वर और भी गम्भीर हो गया, "पर भक्ति पर भी पूरी तरह स्थिर रहना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पाया है। उस विषय में कई बार कृष्ण से बात भी की है। अब देखा...", उद्धव की दृष्टि सुदामा पर टिक गयी, "मैंने बरसाने की राधा को कृष्ण की भक्ति करते देखा है। वह अपनी भक्ति में इतनी तन्मय है कि उसे देखकर कोई भी विह्वल हो जाता है। पर राधा को कृष्ण नहीं मिले।"
"तुम्हारा विचार है कि भक्ति से कोई उपलब्धि नहीं होती।" सुदामा ने पूछा; और बिना कोई उत्तर पाये ही उन्होंने आचार्य ज्ञानेश्वर द्वारा राजपुरुष की भक्ति की कथा सुनाकर कहा, "तुम क्या समझते हो कि आचार्य ज्ञानेश्वर को इस भक्ति का फल कुछ नहीं मिलेगा?"
"दोनों को मिलाओ मत।" उद्धव को बोलने का अवसर दिये बिना कृष्ण बोले, "एक प्रेम मिश्रित भक्ति है और दूसरी सीधी-सीधी चाटुकारिता। भक्ति एक भाव है और चाटुकारिता कर्म-यद्यपि निकृष्ट कर्म है। पर कर्म वह है और उसका फल आचार्य को मिलेगा।"
"तो तुम भी यही कहना चाहते हो कि भक्ति का फल नहीं मिलता?" सुदामा ने अपना प्रश्न दुहराया।
"ठहरो! पहले मेरी बात सुनो।" उद्धव ने कृष्ण को बोलने नहीं दिया, "मैंने यह नहीं कहा कि राधा को कुछ नहीं मिला। राधा से पछो कि उसे कृष्ण मिले या नहीं, तो उसका उत्तर होगा कि कृष्ण सदा मेरे पास हैं। वे मेरी आँखों में हैं, मेरे मन में हैं, मेरी आत्मा में हैं..."
"इसे तुम प्राप्ति मानोगे?" सुदामा ने तुनककर पूछा।
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