पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"ठीक हूं।" सुदामा बोले, "तुम्हारे आ जाने के बाद तो यहां हमारे गुरुकुल का वातावरण और भी सजीव हो उठा है।"
"हां!" उद्धव का स्वर गम्भीर था. "हमारा साझा तो गरुकल के जीवन में ही है। एक-दूसरे से मिलने पर वही याद आयेगा, हम बार-बार उसी जीवन को दुहरायेंगे।"
"उसी को मत दुहराते जाओ।" उद्धव की गम्भीरता की पृष्ठभूमि में कृष्ण की उत्फुल्लता कुछ और अधिक मुखर हो उठी, "ऐसी मैत्री स्थायी नहीं होती। मनुष्य का जीवन निरन्तर आगे बढ़ने वाली एक धारा है। यदि मैत्री उस धारा के साथ-साथ न चले, उसके एक घाट से ही बंधकर रह जाये तो धारा उस घाट की उपेक्षा करने लगती है। कभी उसे छोड़कर परे हट जाती है; कभी उसे उखाड़ फेंकती है; और कभी उसे जलमग्न कर भूल जाती है।"
सुदामा मुग्ध भाव से कृष्ण को देखते रहे-कृष्ण पहले ही शेष लोगों से कुछ न्यारा था, असाधारण। पर इधर तो उसका तीव्र विकास हुआ है। उसका अनुभव-क्षेत्र बहुत बढ़ा है। जीवन के विस्तार और गहराई को उसने देखा-परखा और समझा है। सुदामा तो अपनी पोथियों में ही उलझ कर रह गये हैं। कृष्ण सक्रिय है और व्यवहारकुशल!...और सुदामा, मात्र निष्क्रिय चिन्तक...एक सहज सरल शिष्टाचार के अतिरिक्त व्यवहार तो उन्होंने सीखा ही नहीं है...
"साथ-साथ कैसे चला जाये?" उद्धव बोले, "सुदामा तो रहता है, अपनी सुदामापुरी में...।"
कृष्ण खिलखिलाकर हंस पड़े, "अच्छा नाम दिया है उद्धव तुमने। उस गाँव का नाम सुदामा के नाम पर ही होना चाहिए। कितना अच्छा हो कि प्रत्येक स्थान का नाम वहां जन्मे अथवा निवास करने वाले बड़े-से-बड़े विद्वान् के नाम पर रखा जाये। इससे किसी भी नगर अथवा ग्राम की विद्वत्ता की पोल तुरन्त खुल जायेगी।"
"और किसी स्थान का हो या न हो, "उद्धव बोले, "पर सुदामा के गाँव का नाम तो सुदामापुरी हो गया।"
"कल ही ग्राम-प्रमुख को सूचना भिजवा दो।" कृष्ण बोले।
"ठीक है।"
"पर बात तो मैत्री की हो रही थी।" सुदामा ने टोका, "और तुम दोनों किधर बहक गये।"
"हां, मैं कह रहा था," उद्धव बोले, "सुदामा उलझे हैं अपनी पोथियों में और हम कभी किसी युद्ध में, कभी युद्ध-परिषद् में...।"
"तभी तो कह रहा हूं।" कृष्ण अपने आश्वस्त स्वर में बोले, "एक-दूसरे की खोजखबर तो रखनी चाहिए। नहीं तो व्यक्ति अपने विकास से तो परिचित होता है, दूसरे के विकास से अनजान रहता है। इसलिए अपने महत्त्व को तो बहुत अधिक आँकता है, दूसरे के महत्त्व को जानता तक नहीं। परिणामतः उसका अहंकार बढ़ता है और वह दूसरों की उपेक्षा और तिरस्कार करने लगता है।"
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