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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


बड़े व्यावहारिक ढंग से अपने निर्देशन में दासियों से चौकियों पर भोजन लगवाती रहीं। लगता था रसोई का प्रबन्ध सत्यभामा के ही अधिकार में था-

सुदामा का मन इधर-उधर भटकता रहा। वे सोचते रहे-राम ने मात्र एक विवाह किया था। कितनी निष्ठा थी, दोनों में एक-दूसरे के प्रति । पर लंका से लौटने पर जनमत की चिन्ता से राम को अपनी निर्दोष पत्नी को भी त्यागना पड़ा था-पता नहीं यह घटना सच्ची है या नहीं हो सकता है कि यह बाद के किसी कवि की कल्पना हो और रामकथा में प्रक्षेप मात्र ही हो-सम्भव है कि इसके माध्यम से कवि सामाजिक और पारिवारिक दायित्व का द्वन्द्व ही जताना चाहता हो-पर इससे सामाजिक नैतिकता का एक रूप तो प्रकट होता ही है। और दूसरी ओर यह कृष्ण है, जिसने उस सामाजिक नैतिकता की रत्ती-भर भी चिन्ता नहीं की। सर्वविदित है कि वे स्त्रियां स्थान-स्थान से अपहृत की गयी हैं। उनकी मर्यादा...पर इस कृष्ण ने किसी बात की चिन्ता नहीं की। जैसा कि वह स्वयं कहता है...सारा गरल उसने स्वयं पी लिया। किसी को समझाने नहीं गया, किसी को सुधारने नहीं गया-कितना मौलिक है, इसकी नैतिकता का स्वरूप। यह पुरुष समाज को एक नया आधार देगा...

भोजन के समाप्त होते ही सूचना मिली कि उद्धव मिलने आये हैं।

"बुलाओ! बुलाओ!' कृष्ण उत्साह भरे स्वर में प्रतिहारी से बोले, और फिर सुदामा की ओर मुड़े, "मैं सोच ही रहा था कि तुम्हारी भेंट उद्धव से भी हो ही जाये।"

सुदामा के चेहरे पर उत्फुल्लता झलकी : पर उनके कुछ कहने से पहले ही उद्धव ने कक्ष में प्रवेश किया।

उन्होंने सुदामा को वहां देख कोई आश्चर्य प्रकट नहीं किया। आकर सहज रूप से गले मिले और बैठ गये, "मुझे सूचना मिली कि सुदामा आया हुआ है, तो मैं समझ गया कि गोविन्द का कहीं और मिलना अब सम्भव नहीं है।"

कृष्ण हंसे, कुछ बोले नहीं।

"कैसे हो सुदामा?" उद्धव ने पूछा।

उत्तर देने से पूर्व सुदामा ने एक भरपूर दृष्टि उद्धव पर डाली : उद्धव का कद-काठ पहले से बढ़ गया था। अपने आप में पर्याप्त स्वस्थ और प्रसन्न भी दिखाई पड़ रहा था; किन्तु वह कृष्ण के समान बलिष्ठ और उत्फुल्ल नहीं था। उसके चेहरे पर गम्भीर उदासी थी। आँखों में चिन्तन का आल-जाल था। किन्तु कृष्ण के साथ उसका रूप-साम्य अद्भुत था। सम्भवतः सगे भाइयों के चेहरे भी इतने नहीं मिलते. जितने इन दोनों चचेरे भाइयों के मिल रहे थे। यदि उद्धव कृष्ण के वस्त्र पहनकर, कृष्ण बन जायें तो कोई भी यही मान लेगा कि कृष्ण कुछ दुबला हो गया है।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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