पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
नौ
सवेरे, महल में और कोई अभी जागा भी नहीं था कि कृष्ण ने सुदामा को रथ पर बैठाया और रथ हांक दिया।
"हम कहां चल रहे हैं?"
"सोचा, तुम्हें ज़रा द्वारका का गुरुकुल दिखा दूं।' कृष्ण बोले, "शस्त्रास्त्रों में तुम्हारी रुचि नहीं है। मुष्टि और मल्ल-युद्ध इत्यादि देख कर तुम क्या करोगे।
आयुर्विज्ञान तुम सीखना नहीं चाहोगे। तो तुम्हें कुलपति और दर्शनशास्त्र के आचार्य से मिला देता हूं। वैसे तो चाहता था कि तुम गंगाचार्य से भी मिल लो, पर वे आजकल द्वारका में हैं नहीं।"
"और बड़े भैया, बलराम?"
"वे भी बाहर गये हुए हैं।"
"आजकल वे काफी भ्रमण करते हैं।' सुदामा के मुख से अनायास ही निकल गया, यद्यपि वे बलराम के भ्रमण के विषय में कुछ भी नहीं जानते थे।
"नहीं," कृष्ण हंसे, "कभी-कभी सोमरस पीकर भी पड़े रहते हैं।"
यद्यपि कृष्ण ने यह बात हंसकर कही थी, पर उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि बात हंसी की नहीं थी।
सुदामा ने बातों की दिशा बदली, "उद्धव किस समय आयेगा?"
पर शायद सुदामा ने फिर गलत प्रश्न पूछ लिया था। कृष्ण और भी गम्भीर हो गये, "उद्धव आज प्रातः इन्द्रप्रस्थ चला गया है। वहां से कदाचित् वह हस्तिनापुर भी जाये।"
सुदामा ने परीक्षक दृष्टि से कृष्ण को देखा : क्या पूछे? पूछने में हर्ज ही क्या था। पूछने से कृष्ण की चिन्ता बढ़ेगी तो नहीं, प्रकट चाहे हो जाये।
"कृष्ण!" सुदामा धीरे-से बोले, "कल जब इन्द्रप्रस्थ से समाचार आया था तो तुम कुछ चिन्तित हो उठे थे। उद्धव का तत्काल इन्द्रप्रस्थ चल देना भी सिद्ध करता है कि वहां कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाएं घट रही हैं। पर मैं उसका महत्त्व समझ नहीं पा रहा यदि दुर्योधन ने युधिष्ठिर को चौपड़ खेल के लिए निमन्त्रण भेजा है तो उसमें ऐसी क्या बात है। युधिष्ठिर चाहें खेलें, चाहें न खेलें...।"
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