पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"संघर्ष!" सुदामा बोले।
कुलपति हंस पड़े, "हमारे वासुदेव और सुदामा एक ही समान सोचते हैं। तभी तो द्वारका के गुरुकुल में शारीरिक व्यायाम तथा शस्त्र-शिक्षा के साथ दर्शन और अध्यात्म का अध्ययन होता है।"
"पर फिर अपरिग्रह की बात क्यों की जाती है?" दर्शनाचार्य बोले, "त्याग की भावना का गुण क्यों गाया जाता है?'
"यदि त्याग और अपरिग्रह का सिद्धान्त आपको जीवन से दूर ले जाता है, यदि आपके समाज को दुर्बल करता है," सुदामा अपने शान्त स्वर में बोले, "तो वह व्यर्थ है। वह किसी समाज को स्वीकार्य नहीं होगा। समाज उसी चिन्तन को ग्रहण करता है, जो उसे अधिक समर्थ बनाता है। इसलिए आप अनेक स्थानों पर देखेंगे. लोग सिद्धान्ततः तो एक आदर्श को स्वीकार करते हैं, उसकी पूजा करते हैं, उसे नमन करते हैं; किन्तु जीवन के व्यवहार में उसे कभी ग्रहण नहीं करते। समाज को ऐसे आदर्श क्यों दिये जाते हैं, जो सुनने में अच्छे लगें, किन्तु जीवन में उनका महत्त्व बाह्याडम्बर अथवा शोभा की वस्तु से अधिक न हो?"
"यही तो मैं कहता हूं।" कृष्ण बोले, "सबसे महत्त्वपूर्ण है-यह जीवन। जितना भी चिन्तन होता है, वह इसी जीवन को अधिक विवेकपूर्ण, समृद्ध, सुविधापूर्ण और सम्मानजनक बनाने के लिए होता है। किन्तु, जीवन का तात्पर्य एक व्यक्ति का जीवन नहीं, सारी मानवता का जीवन है; और यदि हम उसके परे भी सोच सकें तो सारी सृष्टि ही जीवन है। इसलिए किसी एक व्यक्ति अथवा समूह के जीवन की समृद्धि से, जीवन समृद्ध नहीं होगा। जीवन समृद्ध होगा, समस्त मानवता की समृद्धि से। जब तक मनुष्य के पास सम्पत्ति की कमी थी, तब तक त्याग का चिन्तन किया गया; किन्तु अब, जब मनुष्य के परिश्रम और ज्ञान से सम्पत्ति बढ़ गयी है, समस्त दार्शनिक और चिन्तक, उसके वितरण की बात कर रहे हैं।" कृष्ण ने रुककर कुलपति की ओर देखा, "मैंने यादवों से सदा यही कहा है कि परिश्रम कर उत्पादन बढ़ाओ, सम्पत्ति बढ़ाओ और उसका न्यायपूर्ण वितरण करो। न्यायपूर्ण वितरण नहीं होगा, तो विरोध और वैमनस्य होगा। परिणामतः युद्ध और विनाश होगा। इसीलिए कहता हूं कि युद्धों के विनाश से मानवता को बचाना है तो सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण करो। व्यक्ति और व्यक्ति में तथा समाज और समाज में अन्यायपूर्ण, विषम संचय ने सदा ही युद्धों को जन्म देकर, मानवता को विनाश के मुख में धकेला है।"
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