पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"आर्य, सुदामा ठीक कह रहे हैं।" दर्शनाचार्य तत्काल सहमत हो गये।
"इस दृष्टि से वैराग्य समाज के लिए उपयोगी नहीं है?" कुलपति ने कहा।
"किसी भी समाज के लिए वैराग्य विष है।" सुदामा बोले, "वैराग्य का स्वीकार्य सामीजिक आत्महत्या है।"
"आत्महत्या से बढ़कर।" कृष्ण हंस पड़े, "आत्महत्या करने वाला व्यक्ति यह कहता है कि यह संसार मुझे पसन्द नहीं है, इसलिए मैं इसे छोड़ता हूं। किन्तु वैरागी यह कहता है कि संसार व्यर्थ है, किन्तु मैं अपने जीवन को धारण किये रहूंगा। मैं जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन के लिए श्रम नहीं करूंगा; किन्तु मुझे अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सभी वस्तुएं उपलब्ध होनी चाहिए। मैं धन अर्जित नहीं करूंगा, उसे अपने पास नहीं रखूगा; किन्तु विभिन्न कार्यों की पूर्ति के लिए धनाढ्य लोगों के द्वारों के चक्कर लगाऊंगा।"
"पर हमारे ऋषि भी तो संन्यासी हैं।" दर्शनाचार्य ने धीरे-से कहा।
"उस दृष्टि से तो आप भी संन्यासी हैं। सुदामा भी संन्यासी हैं।" कृष्ण बोले, "जो धनार्जन की स्पर्धा में से अलग होकर अपनी आवश्यकता भर अर्जन कर सामाजिक कल्याण के लिए कार्य कर रहे हैं। हमारा कोई ऋषि जीवन को माया मान उससे विलग होकर नहीं बैठा।" कृष्ण कुछ क्षणों के लिए जैसे कहीं खो गये, "अब देखो, प्रत्येक जीव में अपने प्राणों के प्रति कैसी ममता है। कैसा भी निकृष्ट जीव क्यों न हो, कितनी भी शारीरिक असमर्थता उसमें हो, कैसी भी विकट परिस्थितियों में क्यों न हो...वह मरना चाहता है क्या?"
"नहीं।"
"जीवन के प्रति यह ममता उसे प्रकृति ने दी है। प्रकृति चाहती है कि वह जिये, अपने प्राणों की रक्षा करे और जीवन की परम्परा को आगे बढ़ाये। यही कारण है कि मनुष्य से लेकर छोटे-से-छोटा जीव-जन्तु न केवल सन्तान चाहता है, वरन् उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करता है। जीवन के भीतर आत्मरक्षा की भावना, प्रकृति का आदेश है। आत्मरक्षा का तनिक विस्तार करो तो पाओगे कि अपने जीवन के अधिकारों की रक्षा का भी यही अर्थ है। जीवन का अधिकार भौतिक धरातल पर, जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं का अधिकार है और मानसिक धरातल पर स्वाभिमान, चिन्तन-मनन की स्वतन्त्रता, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रा का अधिकार इत्यादि-इन सबकी रक्षा भी प्रकृति की इच्छा और आवेश है। मैं यहां संचय का मार्ग नहीं दिखा रहा," कृष्ण का स्वर मन्द हुआ, "क्योंकि संचय का अर्थ है--दूसरों को उनके अधिकारों से वंचित करना। प्रकृति ने दूसरों को भी जीवन तथा उसकी रक्षा का अधिकार दिया है। संचय प्रकृति के नियमों का उल्लंघन है। इसलिए मैं कहता हूं कि अपने जीवन, जीवन की आवश्यकताओं, अपनी स्वतन्त्रता और स्वाभिमान के लिए संघर्ष करने वाला, उनके लिए मर मिटने वाला व्यक्ति प्रकृति की आज्ञा का पालन करता है, वह सत्य के मार्ग पर है और बैठा-बैठा, उद्यम और कर्म न करने वाला, बिना हाथ-पैर हिलाये ईश्वर के न्याय को पुकारने वाला व्यक्ति असत्यमार्गी है। प्रकृति के आदेशों का उल्लंघन कर, उसकी सहायता और कृपा पर निर्भर रहने का दम्भ करना, स्वयं अपने-आपको धोखा देना है।" कृष्ण कुछ क्षण रुके, जैसे कुछ सोच रहे हों, "यदि दुर्योधन द्यूत के षड्यन्त्र से पाण्डवों के अधिकार छीन ले तो पाण्डवों के सामने दो मार्ग होंगे : तपस्वी वेश में साधना कर, ईश्वर को पुकारते रहें कि वह उनका राज्य कौरवों से उन्हें दिला दे या फिर अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करें। ऐसे में उनका धर्म क्या है?"
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