पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"वत्स सुदामा!" सहसा कुलपति बोले, "हमारे वासुदेव, बहुधा तुम्हारी चर्चा करते हैं। आज तुम्हारे सामने एक प्रश्न रखना चाहता हूं।"
'कहिये आर्य कुलपति!"
"अध्यात्म व्यक्तिवादी चिन्तन है अथवा सामाजिक?"
सुदामा ने क्षण-भर कुलपति को देखा : यह व्यक्ति धूर्ततापूर्वक उनकी परीक्षा लेना चाहता है या सचमुच एक संवाद स्थापित करना चाहता है? इस व्यक्ति के विषय में बाबा की राय अच्छी नहीं थी, पर वह बाबा का पूर्वाग्रह भी हो सकता है। कुलपति के निर्विकार चेहरे से सुदामा कुछ भी समझ नहीं पाये; किन्तु कृष्ण के चेहरे की आश्वस्ति कह रही थी कि उनकी उपस्थिति में सुदामा के लिए आशंका का कोई कारण नहीं है...विद्वानों की आपसी ईर्ष्याग्नि की भी नहीं।
"मेरा विचार है, अध्यात्म और वैराग्य में थोड़ा अन्तर करना चाहिए," सुदामा बोले, "वैराग्य व्यक्तिवादी चिन्तन है। व्यक्ति किन्हीं कारणों से इस संसार से ऊब जाये या थक जाये तो वह उपलब्ध सविधाओं, सखों और भोगों का भी उपभोग नहीं करता। वह स्वयं को वंचित रखता है और वंचित रखना चाहता है। सुविधाओं का उचित भोग करने वाले लोगों को वह भ्रमित मानता है।"
"और अध्यात्म?" कुलपति ने पूछा।
"अध्यात्म मेरी दृष्टि में सामाजिक चिन्तन है।" सुदामा बोले, "सामूहिक जीवन का चिन्तन। आध्यात्मिक जीवन स्वयं को वंचित नहीं, वितरित करता है। इच्छा, कामना अथवा आसक्ति से विच्छिन्न कर, विवेकपूर्वक यह सोचना सिखाता है कि सृष्टि में जो कुछ उपलब्ध है, वह किसी एक के लिए नहीं, सबके लिए है। परिणामतः प्रतिक्षण सचेत रहना पड़ता है कि हम संचय न करें, क्योंकि एक के द्वारा संचय, दूसरे को वंचित करता है।" सुदामा ने रुककर एक दृष्टि डाली, "यदि मेरे मन में वैराग्य को स्थान मिलेगा तो मैं अपनी पत्नी और बच्चों को त्याग दूंगा, क्योंकि वे मुझसे अपेक्षा करते हैं कि मैं अपने और उनके जीवनयापन के लिए पर्याप्त धनोपार्जन करूं। वैराग्य के अनुसार धन माया है, मोह है, आसक्ति है। इस प्रकार मेरी पत्नी और मेरे बच्चे, मुझे मोह में आसक्त कर रहे हैं। किन्तु अध्यात्म के अनुसार, मुझे उनका पालन-पोषण करना है। धन और भोग मेरा लक्ष्य नहीं है-पर भरण-पोषण भर के लिए अर्जन करना मेरा धर्म है।"
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