पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
आगंतुकों को देख, वे दोनों उठकर सम्मानपूर्वक खड़े हो गये।
"बैठो वत्स!" कुलपति ने कहा।
और फिर कृष्ण ने सुदामा के कन्धों को अपनी भुजाओं में भरकर, उनका परिचय दिया।
सुदामा की दृष्टि दर्शनाचार्य से अधिक भृगुदास पर टिकी। वह विचित्र स्थिति में था। उसकी दृष्टि कभी कृष्ण पर रुकती थी और कभी सुदामा पर। कभी उसके चेहरे पर ऐसे भाव आते, जैसे वह स्वर्ग में पहुंच गया है और कभी लगता, जैसे उसने कोई प्रेत देख लिया है।
सब बैठ गये तो दर्शनाचार्य ने फुसफुसाकर कहा, "तुम अब चलो भृगुदास! अवकाश के समय आना।"
"क्या कह रहे हैं आचार्य!" कृष्ण ने मुस्कराकर कहा, "हमारे आने के कारण अपने अतिथि को भगाये दे रहे हैं। हम तो थोड़ी देर में चले ही जायेंगे।"
दर्शनाचार्य ने कुछ कहा नहीं। भृगुदास की ओर देखा भर; पर वह दृष्टि साफ-साफ कह रही थी कि 'भृगुदास! तुम खिसक ही जाओ तो अच्छा है।' पर भृगुदास दृष्टि की भाषा समझ नहीं पा रहा था। उसे तो जैसे काठ मार गया था।
"आप कब आये सुदामाजी?" दर्शनाचार्य ने अत्यन्त विनीत भाव से पूछा।
"कल सन्ध्या समय द्वारका पहुंचा हूं।" सुदामा ने धीरे-से कहा।
"और टिके कहां हैं?"
"टिकेंगे कहां!" कृष्ण ने सुदामा को बोलने नहीं दिया, "द्वारका में सिवा मेरे, उद्धव और बलराम भैया के सुदामा का है ही कौन...ग्रन्थ, पोथियां और सिद्धान्त।" इस समय कृष्ण इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर की चिन्ताओं से सर्वथा मुक्त थे।
"जिसके मित्र आप हैं," दर्शनाचार्य ने अपने स्वर में जैसे अपनी आत्मा को उडेल दिया, "उसे किसी और की मैत्री का करना ही क्या है।"
"सुदामा! इनसे सावधान रहना।" कृष्ण अपने उन्मुक्त और उत्फुल्ल स्वर में बोले, "हमारे दर्शनाचार्य, चाटुकारिताचार्य भी हैं।''
दर्शनाचार्य ने हंसकर इस सत्य को निगल लिया। कुछ बोले नहीं।
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