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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


युद्ध और चूत की राजनय संस्कृति का यह संसार सुदामा के लिए सर्वथा अपरिचित था। वे उसके गणित को समझते भी नहीं थे; इसलिए उसके भविष्यफल की गणना भी वे नहीं कर सकते थे। कृष्ण समझता था, इसलिए वह आसन्न युद्ध को अपनी आँखों से देख रहा था। उसकी चिन्ता बता रही थी कि निकट भविष्य में अवश्य ही कोई बहुत ही गम्भीर घटना घटने जा रही थी...

रथ गुरुकुल के द्वार पर रुक गया।

अब तक जो गुरुकुल सुदामा ने देखे थे, वे प्रायः नगर के बाहर ही हुआ करते थे। यह एक विचित्र गुरुकुल था, जो नगर के भीतर था। किन्तु गुरुकुल के द्वार के भीतर का सारा वातावरण आर्य गुरुकुलों के ही अनुरूप था। नगर का उससे कोई सम्पर्क नहीं था। सागरतट पर बसा हुआ यह गुरुकुल, वनों से घिरे गुरुकुलों से भिन्न नहीं था।

मुख्य द्वार से कुलपति के कुटीर तक वे लोग पैदल ही आये।

"आओ योगीराज!" कुलपति ने उनका स्वागत किया।

सुदामा का ध्यान इस ओर गये बिना नहीं रहा कि कुलपति ने कृष्ण को प्रशासन सम्बन्धी किसी उपाधि से न पुकार 'योगीराज' कहा है और बाबा ने ठीक ही कहा था कि कृष्ण के आने पर कुलपति ने ऐसा व्यवहार नहीं किया था, जैसा कि आश्रम के स्वामी के आने पर किया जाना चाहिए था।

"आर्य!'' कृष्ण बोले, "ये मेरे मित्र हैं, सुदामा। विकट दार्शनिक हैं। सोचा, इनकी आपसे भेंट हो जाये। दर्शनाचार्य सखदेव से भी मिल लें।"

कुलपति ने उठने में तनिक भी विलम्ब नहीं किया, "चलो योगीराज!"

सुदामा को आश्रम का वातावरण और कृष्ण तथा कुलपति का व्यवहार समारोह शून्य तथा अनौपचारिक लगा। कोई और गुरुकुल होता तो पहले कृष्ण की आरती उतारी गयी होती और फिर कलपति ने दर्शनाचार्य को बलाने के लिए अपने ब्रह्मचारी दौडाए होते और तब दर्शनाचार्य के दर्शन होते...पता नहीं यह कृष्ण का प्रभाव था या...

वे लोग दर्शनाचार्य सुखदेव के कुटीर में आये। उनके कुटीर में एक व्यक्ति पहले से बैठा था। सुदामा ने पहचाना : यह उन्हीं का ग्रामवासी और उनका पड़ोसी भृगुदास था। भृगुदास उन्हें आचार्य ज्ञानेश्वर के भाषण के अवसर पर मिला था। उसने शायद कहा था कि वह अगले दिन द्वारका जा रहा है। पर आज भृगुदास जैसे उन्हें पहचान ही नहीं रहा था।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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