पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
दस
गुरुकुल से चलकर कृष्ण का रथ सागरतट पर जा रुका।
"भूख तो नहीं लगी सुदामा?"
"नहीं, अभी तो ऐसी कोई आवश्यकता नहीं है।"
"तो आओ, तुम्हें द्वारका के सागरतट का सौन्दर्य दिखाऊं।" कृष्ण ने सुदामा का हाथ पकड़कर उन्हें रथ से नीचे उतारा।
"भाभी चिन्तित तो रहीं होंगी?" सुदामा ने धीरे-से पूछा।
"तुम बड़े नियमित जीवन के अभ्यस्त हो भाई!" कृष्ण मुक्त कण्ठ से हंसे, "मैं सारथि बाहुक के हाथ रुक्मिणी को यह सन्देश भिजवा आया था कि हमें लौटने में विलम्ब हो सकता है।"
सुदामा ने कुछ नहीं कहा। वे कृष्ण का हाथ पकड़े उनके साथ घिसटते चले जा रहे थे। वे अनुभव कर रहे थे कि कृष्ण उनके समवयस्क होते हुए भी शारीरिक शक्ति, क्षमता और ऊर्जा में उनसे बहुत बढ़कर थे। सुदामा ने कभी अपने शरीर की चिन्ता नहीं की थी; अब उन्हें लग रहा था कि बदले में शरीर ने भी उनकी चिन्ता नहीं की है। अभी वे यह बात कह दें तो कृष्ण कह देंगे...'यही तो कर्म-सिद्धान्त है।'
कृष्ण ने तट पर बंधी अनेक नौकाओं में से एक खोल ली थी और उसमें सुदामा को बैठा, स्वयं चप्पू लेकर सामने बैठ गये थे।
नाव चली तो सुदामा ने पूछा, "ये नौकाएं कैसी हैं?"
"ये द्वारका के तट-रक्षकों की नौकाएं हैं।" कृष्ण बोले, "बड़े भैया के श्वसुर राजा कुकुद्मीन ने इन सुन्दर सागरतटों की रक्षा की चिन्ता नहीं की थी, परिणामतः कुशस्थली उनके हाथों से छिन गयी थी। पर हम लोग इन तटों की रक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते। द्वारका के यादव व्यापारिक भी हैं और समर-शक्ति सम्पन्न भी।"
तट तो सचमुच बहुत सुन्दर है।" सुदामा की दृष्टि दूर-दूर तक निहार रही थी।
"इधर सारा का सारा तट ही बहुत सुन्दर है," कृष्ण बोले, "पर सुरक्षित नहीं। मुझे भय है कि लोग शीघ्र नहीं चेते तो निकट भविष्य में ही भयंकर परिणाम होंगे।" कृष्ण का मन जैसे कहीं दूर चला गया था। क्षण-भर में ही उनके चेहरे पर गहरी चिन्ता छा गयी थी। उनकी उत्फुल्लता जाने कहां विलीन हो गयी थी।
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