पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"क्या बात है कृष्ण?" सुदामा, कृष्ण के इस परिवर्तन से चकित हो रहे थे।
"इधर भक्ति की धारा बड़े वेग से बह रही है। लोगों की आस्तिकता में सहसा ही ज्वार आ गया है।' कृष्ण के होंठों पर व्यंग्य-भरी मुसकान थिरक रही थी, "भगवान् सोमनाथ को मन्दिर में स्थापित कर लोगों ने उन्हें अपना संरक्षक मान लिया है। उनका विश्वास है कि किसी भी आक्रमण के समय, स्वयं महादेव उनकी रक्षा करेंगे; अर्थात् अपने शत्रुओं से युद्ध भक्तजन नहीं करेंगे, महादेव करेंगे।"
"नहीं करेंगे क्या?" सुदामा के मुख से अनायास निकला।
"भक्त अपनी देव-मूर्तियों की रक्षा करते हैं," कृष्ण मुस्कराये, "देव-मूर्तियां अपने भक्तों की रक्षा नहीं करतीं।"
"तुम तो पूरे नास्तिक हो कृष्ण।"
"आस्तिकता-नास्तिकता का प्रश्न अत्यन्त जटिल है मित्र! बड़े-से-बड़ा आस्तिक भी कहीं नास्तिक होता है और बड़े-से-बड़ा नास्तिक भी कहीं घोर आस्तिक होता है।"
"भाई! तुम मुझे और उलझाओ मत। मेरे पास अपनी ही उलझनें बहुत हैं।"
सुदामा ने कृष्ण की ओर देखकर मुस्कराने का प्रयत्न किया।
कृष्ण थोड़ी देर तक मौन कुछ सोचते रहे, फिर धीरे-से बोले, "इस सृष्टि को देखो। कितनी व्यवस्था है इसमें, कितनी नियमबद्धता और कितना प्रगाढ़ अनुशासन। क्या तुम्हें कहीं कोई अपवाद दिखाई देता है?"
"अपवाद!" सुदामा बोले, "अपवाद ही अपवाद हैं। कभी वर्षा होती है और कभी नहीं होती। कभी सूखा पड़ता है और कभी बाढ़ आ जाती है। वर्षों तक शान्त भूमि कभी डोलने लगती है और जड़ पर्वत आग उगलने लगते हैं। ये सब अपवाद नहीं हैं क्या?"
कृष्ण मुस्कराये, "तुमने माना है कि नियम यह है कि वर्षा ऋतु में आकाश पर बादल छायेंगे, मेघ गरजेंगे, बिजली चमकेगी; और वर्षा होगी। शरद ऋतु में आकाश निर्मेघ रहेगा। वर्षा नहीं होगी। जब कभी वर्षा ऋतु में वर्षा नहीं हुई और शरद ऋतु में वर्षा हो गयी, तुमने मान लिया कि प्रकृति का नियम भंग हो गया।"
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