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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"हां!" सुदामा ने सहमति प्रकट की।

"किन्तु नियम तो यह नहीं है।" कृष्ण पुनः मुस्कराये, "मेघ तुम्हारी ऋतुओं की गणना को देखकर तो वर्षा नहीं करते। नियम यह है कि सूर्य का ताप सागर के जल को वाष्प में बदलेगा। यह वाष्प पर्वत, वन अथवा किसी अन्य बाधा से जल, हिम अथवा ओले बनकर बरसेगा। यदि वाष्प को वायु किसी और दिशा में बहा ले गयी; अथवा वाष्प बनने अथवा उसकी यात्रा में विलम्ब हुआ; अथवा वनों इत्यादि के कट जाने से मेघ वहां रुक नहीं पाये, वर्षा विलम्ब से हुई, जल्दी हुई अथवा नहीं हुई; सूखा पड़ा या बाढ़ आयी तो उसमें नियम भंग कहां हुआ?" कृष्ण क्षण-भर के लिए रुके, "वाष्प बनने, वायु के बहने, वर्षा होने, भूचाल के आने, ज्वालामुखियों के फूटने के अपने निश्चित नियम हैं; किन्तु इनसे जो घटना जहां घटती है, उसका कारण वहीं नहीं होता। तुम्हारे गाँव में जो वर्षा होती है, उसका कारण असंख्य योजन दूर स्थित सूर्य तथा सहस्रों योजन दूर सागर में है। जिस वायु के सहारे मेघ यात्रा करते हैं, उसका सम्बन्ध सारी पृथ्वी के भूगोल से है। जिस भूचाल से कोई नगर डोल जाता है, उसका सम्बन्ध उस नगर से नहीं, पृथ्वी के गर्भ में होने वाली घटनाओं से है। पर्वत की जिस चोटी से लावा फूटता है, उसका निर्माण अनेक योजन नीचे, भूगर्भ के नियमों के अनुसार होता है।" कृष्ण की दृष्टि सुदामा के चेहरे पर ठहर गयी, "तुम जब अपवादों की बात करते हो तो इन कारणों का ज्ञान तुम्हें होता है ? इनका विश्लेषण तुम करते हो?"

"नहीं।"

"तो दोष अपवाद मानने वाली बुद्धि के अज्ञान में है अथवा प्रकृति की व्यवस्था में?"

"बुद्धि के अज्ञान में।"

"इसीलिए कहता हूं कि प्रकृति की व्यवस्था पूर्ण है, नियमबद्ध है। मनुष्य उसे न जाने, न समझ पाये तो दोष मनुष्य के अधूरे ज्ञान और सीमित समझ का है। घोर-सेघोर नास्तिक भी प्रकृति की इस व्यवस्था को मानता है। इसलिए मैं उसे आस्तिक कहता हूं। उसका व्यवस्था में विश्वास है; और यह व्यवस्था न उसकी बनाई हुई है और न उसके आदेश पर अपना स्वरूप बदलती है। वह प्रकृति के निकट जाता है, उसके स्वरूप को समझता है, उसके नियमों को खोजता है और उनके अनुसार चलता है। वह प्रकृति की इच्छा के अनुकूल स्वयं को ढालता है या अपने अनुकूल नियमों को खोजने का प्रयत्न करता है। वह आस्तिक हुआ या नहीं?" कृष्ण रुककर मुस्कराये, "जब मैंने इन्द्र की पूजा रुकवाई तो अनेक लोगों ने मुझ पर नास्तिक होने का आरोप लगाया, क्योंकि मैं उनके मान्य देवता का विरोध कर रहा था। वैसे ही ईश्वर को स्वयं से पृथक् मानने वाला आस्तिक भक्त, स्वयं में उसी परम सत्ता का अंश अनुभव करने के कारण जब स्वयं को परम सत्ता का ही रूप मानने वाले ब्रह्मवादी को नास्तिक मानता है, पर जो सब ओर उसी परम सत्ता, उसी एक जीवनी शक्ति को देखता है-क्या वह नास्तिक है?"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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