पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
कृष्ण सुदामा की ओर देख रहे थे, जैसे अपने प्रश्न का उत्तर 'हां' या 'ना' में मांग रहे हों; और सुदामा का ध्यान इस सामान्य प्रश्न की ओर न होकर, अपने मन में कृष्ण के सम्बन्ध में कुलबुलाते हुए प्रश्न से उलझ रहा था। : पूछे, न पूछे? पर न पूछने का भी कोई कारण नहीं था। कृष्ण उन मूढ़ आचार्यों में से नहीं था, जो प्रश्नों को अपनी अवज्ञा समझते हैं। और न ही वह कोई सम्राट् था, जिसके सम्मुख राजनीतिक औचित्य- अनौचित्य का विचार कर चुप रह जाने की आवश्यकता हो। हां! प्रश्न व्यक्तिगत अवश्य था; पर सुदामा कृष्ण से एक मित्र के रूप में व्यक्तिगत बातचीत ही तो कर रहे थे, "कृष्ण! तुम पर नास्तिकता का एक यह ही आरोप तो नहीं है।..."
"तुमने कोई और भी सुना है?" सम्भावित आरोप की अप्रत्याशितता अथवा भयंकरता की आशंका की कोई रेखा कृष्ण के माथे पर नहीं उभरी।
"मुझे बाबा ने बताया था कि तुम कभी-कभी इस प्रकार बोलने लगते हो, जैसे तुम स्वयं परम सत्ता हो।"
"कौन बाबा?"
"हैं, मेरे एक वृद्ध मित्र," सुदामा बोले, "फक्कड़ बुद्धिजीवी हैं।"
कृष्ण कुछ सोचते रहे।
"तुमने बताया नहीं।" सुदामा ने कहा।
"हां, बोलता तो हूं।" कृष्ण ने गम्भीर स्वर में कहा, "तुम अपनी तर्क-पद्धति का विस्तार करो, या अपनी संवेदना का विकास करो। अपनी दृष्टि साफ करो तो तुम भी पाओगे कि तुम इस सृष्टि से पृथक् नहीं हो। इसी सृष्टि का एक अंश हो तुम, इसी व्यवस्था का अंग हो। जब समझ लोगे कि तुम इस व्यवस्था से तनिक भी भिन्न हो न पृथक्, तो तुम भी इस प्रकृति के साथ पूर्ण तादात्म्य का अनुभव करोगे। प्रकृति तुम्हारे भीतर होगी और तुम प्रकृति के भीतर। प्रकृति की इस व्यवस्था से पूर्णतः एकाकार होने के समय में जो कुछ तुम कहोगे, वह वस्तुतः तुम नहीं कह रहे, वह प्रकृति कह रही है। तुम अपनी ओर से नहीं बोल रहे, प्रकृति और उसकी व्यवस्था की ओर से बोल रहे हो। ऐसे समय में तुम्हारे तर्क और तुम्हारे वचन, प्रकृति के तर्क और वचन हैं...।"
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