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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"फल की इच्छा, कर्म को संकुचित तथा फल को सीमित करती है।"

"कैसे?"

कृष्ण की आँखों का भाव कुछ ऐसा था, जैसे वे अपने सामने बैठे सुदामा को नहीं देख रहे, उनके आर-पार शून्य में देख रहे हैं। उन्होंने नाव को मोड़कर एक एकान्त स्थान पर रोक लिया और बोले, "सुदामा! द्वारका के गुरुकुल को तुमने देखा है। उसमें विभिन्न विद्वानों और आचार्यों की नियुक्ति एक निश्चित वृत्ति पर विद्यार्थियों के अध्यापन के लिए की गयी। जो भी आचार्य, विद्वान्, अध्यापक नियुक्त हुए, वे सब फल की आशा लेकर ही वहां आये थे। उनकी वृत्ति उनके अध्यापन-कर्म का फल है। उस फल की कामना ही उनसे कर्म करवा रही है।...अब एक अध्यापक ने सोचना आरम्भ किया : मुझे एक निश्चित वृत्ति तो मिलेगी ही, अब मैं चाहे परिश्रम करके पढ़ाऊं या बिना परिश्रम किये। यदि अधिक परिश्रम करूंगा तो कौन मेरी वृत्ति बढ़ जायेगी; और परिश्रम नहीं करूंगा तो मेरी वृत्ति कटेगी नहीं। परिणामतः उसने पढ़ना-लिखना बन्द कर दिया। अपनी कुटिया में पड़ा-पड़ा सोता रहता या कोई और कार्य करता रहता। जब छात्रों को पढ़ाने का समय आता तो उठकर वैसे ही चल देता और जो और जैसा बन पड़ता, पढ़ाकर चला आता। कुछ दिनों में उसे लगने लगा कि पूरा समय पढ़ाना भी क्या आवश्यक है।

निर्धारित समय तक नहीं पढ़ायेगा तो कौन उनकी वृत्ति काट लेगा; पूरा समय पढ़ायेगा तो कौन वृत्ति बढ़ा रहा है। परिणामतः वह अपना काम देर से आरम्भ करता और जल्दी समाप्त कर देता। क्रमशः उसका अध्यापन का अभ्यास छूटने लगा और उसे अपने कार्य से अरुचि होने लगी। कार्य के प्रति उसकी अरुचि देखकर छात्र उससे अप्रसन्न रहने लगे। अध्ययन का क्रम टूट जाने के कारण वह उनकी जिज्ञासाओं का समाधान करने में असमर्थ रहने लगा। अध्यापन उसे पहाड़-सा लगने लगा। छात्रों में उसकी अपकीर्ति फैली। छात्रों के मन में उसका सम्मान क्षीण होने लगा। कुछ छात्र उससे उद्दण्ड व्यवहार करने लगे और एक दिन उन्होंने उसका प्रकट और सार्वजनिक अपमान कर दिया।" कृष्ण ने रुककर सुदामा को देखा। सुदामा बड़े मनोयोग से उनकी बातें सुन रहे थे, "किन्तु, वहीं एक दूसरा अध्यापक भी था," कृष्ण पुनः बोले, "जिसने अपनी नियुक्ति के पश्चात् सोचा कि वृत्ति तो उसे अब मिलनी ही है। आजीविका की ओर से उसे चिन्ता नहीं है। क्यों न वह अब अपना कार्य परिश्रम से करे। वह पूरे मनोयोग से अध्ययन करता रहा। उसका ज्ञान प्रतिदिन बढ़ता रहा और उसने देखा कि अपने शिष्यों को पढ़ाना, उसके लिए तनिक भी कठिन नहीं है। वह शिष्यों को, उनकी अपेक्षा से अधिक ज्ञान बड़ी सरलता से दे सकता है। काम में मन लगाने से उसे उसमें रस आने लगा। वह हर समय, हर स्थान पर छात्रों का कार्य करने के लिए तत्पर था। छात्रों में वह अधिक-सेअधिक रुचि लेने लगा। छात्रों को वह अपना हितैषी लगा, अपना गुरु और मार्गदर्शक लगा। उनके मन में उसका सम्मान बहुत बढ़ गया। उसका यश फैला। उस यश के परिणामस्वरूप उसे ऊंचा पद मिला और जिस धन की उसने अधिक आकांक्षा नहीं की थी, वह धन भी मिला।" कृष्ण ने फिर एक बार रुककर सुदामा की ओर देखा, "जिसने फल की कामना की, उसे उतना ही अथवा उससे भी कम मिला तथा उसने अपना क्षय किया; और जिसने फल की कामना नहीं की, उसे ज्ञान भी मिला, सम्मान भी, यश भी और धन भी।"

 

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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