पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
पर कृष्ण पर सुदामा की उद्दण्डता का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे अपने सहज स्वर में बोलते चले गये, "मुझे लगता है कि तुम 'कर्म' का अर्थ एक सम्पूर्ण ‘क्रिया' या 'प्रक्रिया' मान रहे हो, जिसमें पूर्व-चिन्तन, भावना तथा शारीरिक उद्यम सम्मिलित हैं; और फल से तुम्हारा तात्पर्य उस क्रिया या प्रक्रिया के पुरस्कार अथवा दण्ड से है। उसका कारण यह है कि तुमने कार्यों को अच्छे और बुरे के वर्गों में विभाजित कर रखा है और विभिन्न प्रकार के पुरस्कारों या दण्डों को उन कार्यों के साथ जोड़ रखा है, जबकि उन कार्यों और उन फलों में कोई तार्किक संगति नहीं है।"
"मैंने क्या सोच रखा है, इसे छोड़ो और तुम अपनी बात कहो।" सुदामा के स्वर की झल्लाहट कुछ और मुखर हो आयी थी।
"मेरे लिए 'कर्म' एक क्रिया है-पूरी या अधूरी, अंगी या अंग, पूर्ण या खण्ड। इस दृष्टि से 'फल' उस क्रिया की प्रतिक्रिया मात्र है। यह प्रतिक्रिया, प्रकृति के सत्यों के अनुसार होती है। प्रकृति की दृष्टि में कर्म 'अच्छे' और 'बुरे' की सूचियों में बंटे हुए नहीं हैं। इसलिए प्रत्येक क्रिया का परिणाम ‘पुरस्कार' या दण्ड के रूप में प्रकट नहीं होता-जबकि किसी प्रक्रिया की पूर्णता पर ऐसा हो भी सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रकृति की प्रत्येक क्रिया और प्रतिक्रिया में तर्क संगत कार्य-कारण सम्बन्ध होता है, जबकि सामान्य व्यक्ति द्वारा सोचे गये कर्म और फल में कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं होता।"
"मैं थोड़ा असहमत हूं।" सुदामा अपेक्षाकृत कुछ शान्त स्वर में बोले, "जड़ पदार्थों में तो तुम्हारे प्रकृति के नियम ठीक चलते होंगे, किन्तु मनुष्यों के साथ..."
"उदाहरण दो!" कृष्ण बोले।
"देखो!" सुदामा ने उदाहरण सोचने की मुद्रा बनाई, "हम एक गेंद को दीवार पर मारते हैं, तो वह निश्चित रूप से वापस आती है; किन्तु जब किसी मनुष्य के साथ भलाई करते हैं तो आवश्यक नहीं कि वह उसका उत्तर हमारी भलाई से ही दे-वह हमारा भला ही करे। यहां क्रिया-प्रतिक्रिया जैसा वैज्ञानिक नियम कहां हुआ?"
कृष्ण हंसे और हंसते चले गये।
"क्या हुआ?"
"तुम अपना उदाहरण बदल दो।' कृष्ण बोले, "जैसे गेंद को दीवार पर मारा है, वैसे ही किसी मनुष्य के गाल पर चांटा मारकर देखो, चांटा लौटकर आता है या नहीं।"
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