पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
बाबा की आँखों में एक शून्य तैर गया...थोड़ी देर में उनकी आँखों में पहचान उतरी, "हां, भेद तो है।"
"क्या भेद है?"
"मेरी प्रकृति गतिशील है। मैं टिककर कहीं नहीं रह सकता-अपने घर में भी नहीं। किसी ज्ञान के केन्द्र, किसी साधना के आश्रम में भी नहीं। पर तू अपने घर से बंधा है। तुझे अपने परिवार से मोह है। तुझे अपना स्थान छोड़ना पड़े तो तू भरसक उसका विरोध करेगा; और मुझे एक स्थान पर टिकना पड़े तो मेरे भीतर से कोई मुझे धक्का मारने लगेगा-चल! चल!!" बाबा का स्वर कुछ और गम्भीर हो गया, "आजकल तो मेरी उच्छृंखलता की अति हो गयी है। न एक स्थान पर टिकता हूं, न अधिक समय तक एक विचार को लेकर बंधता हूं। न किसी एक रचना पर अधिक समय लगा पाता हूं; और तो और, एक विषय को अधिक समय तक पढ़ भी नहीं सकता। मेरी इधर की रचनाओं को देखा है-ग्रन्थ लिखना तो दूर, कोई रचना छोटी-सी पोथी की स्थिति तक भी नहीं पहुंच पाती।"
"तो मैं भी कुछ अधिक भ्रमणशील बनूं?' सुदामा के स्वर में परिहास था।
"नहीं!" बाबा उसी प्रकार गम्भीर बने रहे, "अपने मित्र कृष्ण के स्वधर्म वाले सिद्धान्त का ध्यान रख। तू अपने स्वधर्म पर टिका रह। तू मेरे समान घुमक्कड़ बन गया तो व्यवस्थित काम कैसे करेगा, बड़े-बड़े ग्रन्थ कैसे लिखेगा?" बाबा ने रुककर सुदामा को देखा, "पर हमारी बातचीत भटक गयी है। मैं अपनी और तुम्हारी चर्चा नहीं कर रहा था। मैं चर्चा कर रहा था, द्वारका के गुरुकुल और कृष्ण के व्यवहार की।"
"हां। क्या देखा आपने? क्या वहां ज्ञान के विकास में राजनीति का हस्तक्षेप नहीं है?"
"नहीं! और यदि है, तो मुझे दिखाई नहीं दिया।" बाबा बोले, "आज कृष्ण से बड़ा राजनीति विशारद कौन है। यदि राजनीति के हस्तक्षेप से मुक्त गुरुकुल की स्थापना में भी कोई राजनीति हो, तो मैं कह नहीं सकता।" बाबा थोड़ी देर के लिए किसी स्मृति में डूब गये। सुदामा देख रहे थे, बातचीत के बीच में कहीं खो जाने की यह प्रवृत्ति बाबा में बहुत बढ़ गयी थी, "...एक दिन जब मैं वहीं था, कृष्ण आया था गुरुकुल में-वहां के अन्तःवासियों को उनकी रक्षा का आश्वासन देने। यह शाल्व के आक्रमण के दिनों की बात है।"
सुदामा बाबा की ओर देखते रहे। कुछ बोले नहीं।
"ऐसा नहीं लगा कि गुरुकुल का स्वामी आ गया है या यादवों का सबसे शक्तिशाली नायक आया है। कृष्ण का आना वैसा ही था, जैसा किसी भी सम्मानित अतिथि का आना हो सकता है। कुलपति के कुटीर के सम्मुख समाज जुटा था। सब लोग तृणों के बने ऐसे ही आसनों पर बैठे थे" बाबा ने अपने आसन को छुआ, "कृष्ण को भी ऐसा ही आसन दिया गया। उसे न ऊंचे स्थान पर बैठाया गया, न किसी मंच अथवा ऊंचे आसन पर। न उसके अंगरक्षक साथ थे, न चाकर-परिचारक। वह गुरुकुल के समाज में ऐसे बैठा था, जैसे उन्हीं में से एक हो। और फिर...।"
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