पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"ये क्या पीटेंगे।" सुशीला बोली, "शरीर में जान तो है नहीं। आप क्यों नहीं जाकर रोहित को धमकाते।"
सुदामा हंस पड़े, "मैं कौन होता हूं, दूसरों के बच्चे को धमकाने वाला। इन्हें भी तो जीवन जीना है। सीखने दो, उसका सामना करना। हम कहां-कहां इन्हें बचाते फिरेंगे।"
"क्यों?" रोहित की मां सारे ग्राम के बच्चों को धमकाती फिरती है कि मेरे बच्चे को हाथ लगाया, तो हाथ तोड़ दूंगी।...बच्चा क्या उसी का है। हमारे बच्चे नहीं हैं?"
"बच्चे तो तुम्हारे भी हैं।" सुदामा बोले, "पर तुम रोहित की मां नहीं हो। मैं काशीनाथ नहीं हूं। हम उस प्रकार का असभ्य व्यवहार नहीं कर सकते, जैसा वे करते हैं।"
बाबा हंस पड़े, "तुम कृष्ण के मित्र हो। अपने बच्चों को यह नहीं सिखा सकते कि कोई तुम्हें मारे तो तुम भी उसे मारो। हाथ से न मारो, तो ईंट-पत्थर से मारो।"
सुदामा भी हंस पड़े, "मित्र तो मैं कृष्ण का हूं, पर सचमुच अन्याय के विरुद्ध शक्ति-प्रयोग न तो मैं सीख पाया, न अपने बच्चों को सिखा पाया।"
बाबा गम्भीर हो गये, "एक बच्चा वह होता है, जिसे सिखाना पड़ता है कि किसी से लड़ो मत, किसी को मारो मत। पर मुझे लगता है कि तुम्हारे बच्चे को तो हिंस्र बनना सिखलाया जाना चाहिए।'
"हिंस्र बनना क्या सिखायें बाबा!" सुदामा बोले, "आपने देख तो लिया ही है कि तनिक-सा होंठ कट जाने पर सुशीला कैसे घबरा जाती है। वैद्य की बात करने लगती है। कहीं ईंट-पत्थर से लड़ने लगे और सिर फाड़ने लगे...।"
"नहीं! नहीं!! ऐसे ही ठीक है।" सुशीला जल्दी से बोली।
"हां! खून बहाने से आँसू बहाना ही अच्छा है।" बाबा और ज़ोर से हंस पड़े।
सुदामा समझ नहीं पाये कि बाबा, सुशीला का समर्थन कर रहे हैं. या विरोध...।
जब बाबा आगे कुछ नहीं बोले और अपने भीतर ही कहीं डुबकियां लगाते रहे, तो सुदामा ही बोले, "आप मेरे और अपने भेद की बात कर रहे थे?'
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