पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा ने घुटनों के बल बैठकर विवेक के होठों को देखा, उसके निचले होंठो से खून बह रहा था।
"गिर पड़े क्या?" उन्होंने पूछा।
"रोहित ने धक्का दे दिया।" विवेक रोते हुए बोला।
"यह रोहित...।" सुशीला बड़बड़ाई।
"रोना बन्द कर।" सुदामा ने डांटा, "होंठ में तेरे अपने दाँत ही तो लग गये हैं।"
"सुनिये। वैद्य..."
"कोई आवश्यकता नहीं है वैद्य की।" सुदामा बोले, "पानी दो। मुंह धुलवा देता हूं। अभी ठीक हो जायेगा।"
"वैद्य को...।" सुशीला ने फिर कहना चाहा।
"कुछ नहीं हुआ।" सुदामा ने डांट के-से स्वर में कहा, "साधारण-सी बात है। बच्चे खेलेंगे तो गिरे-पड़ेंगे भी। चोट भी लगेगी ही।"
सुशीला बड़बड़ाती हुई गयी और पानी ले आयी। सुदामा ने विवेक का मुंह धुलवाया, कुल्ला करवाया और कहा, "जाओ खेलो।"
"अब कहां भेज रहे हैं?' सुशीला बोली।
"खेलने।" सुदामा ने उत्तर दिया, "अब यह मत कहना कि इसे बहुत चोट लग गयी है, इसलिए इसे विश्राम करना चाहिए।"
सुशीला ने एक विवश दृष्टि सुदामा और विवेक पर डाली और फिर जैसे स्वयं को संयमित करती हुई-सी बोली, "अब रोहित के साथ मत खेलना। तुझे हज़ार बार कहा है कि उसके साथ मत खेला कर।"
"क्यों? रोहित को क्या हुआ है?"
"मारपीट करता है, और क्या!" सुशीला कुछ उग्र स्वर में बोली, "जब देखो हमारे बच्चे रोते हुए ही घर आते हैं।"
"तो किस-किस से खेलने को रोकोगी।" सुदामा बोले, "इन्हें सिखाओ कि रोते हुए न आयें।...जाओ बेटा, तुम जाओ।"
विवेक चला गया।
"केवल इतना ही क्यों।" विवेक के जाने पर बाबा बोले, "इन्हें सिखाओ कि कोई इन्हें मारे, तो ये अपनी रक्षा करें। आत्मरक्षा में दूसरों को पीटना पड़े, तो भी कोई बुराई नहीं है।"
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- अभिज्ञान