पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
दो
सुशीला बच्चों को खोजने बाहर चली गयी तो बाबा ने पूछा, "तुम्हारा वह ग्रन्थ कहां तक पहुंचा है? कितना समय और लगेगा, उसे पूरा होने में?"
"चल रहा है।" सुदामा बोले, "अभी दो वर्ष तो और लग ही जायेंगे।"
"काम तो बहुत बढ़िया कर रहे हो-अद्भुत! देख रहा हूं कि तुम और तुम्हारा परिवार-सब ही कष्ट सह रहे हो। असुविधाओं के मारे सूखते जा रहे हो। पर, मुझे सन्देह है कि इस परिश्रम का उचित और उपयुक्त फल तुम्हें मिलेगा।"
सुदामा ने कुछ नहीं कहा।
बाबा, जैसे अपने-आपसे ही बोले, "आजकल के दार्शनिक और विद्वान् किसी दूसरे का महत्त्व तो स्वीकार करना ही नहीं चाहते। जिसे देखो, वह दूसरों की जड़ें खोदने पर तुला बैठा है। पता नहीं, विद्वानों में इतनी ईर्ष्या और इतना निर्लज्ज पक्षपात क्यों है।"
"यह रोग दार्शनिकों-विद्वानों में ही है क्या?" सदामा ने बाबा के विरोध में नहीं, जैसे स्वयं अपने-आपको सांत्वना दी, "मैंने तो राजाओं-महाराजाओं में भी यही होते देखा है। कृष्ण जैसे व्यक्ति को प्रत्येक सभा में सुनना पड़ता है कि वह राजा नहीं ग्वाला है। रुक्मी ने बार-बार यही कहा, शिशुपाल ने भी यही कहा।"
बाबा कुछ क्षण सोचते रहे और फिर बोले, "हां, तुम ठीक कह रहे हो। जो व्यक्ति आर्यावर्त और उसके बाहर भी-एक प्रकार से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में राजाओं से अधिक शक्तिशाली और लोकप्रिय है; जिसका निर्णय न्याय है, वचन विधान है और चिन्तन त्रिकाल का सत्य है-उस व्यक्ति को ग्वाला कहकर उसकी उपेक्षा का प्रयत्न सचमुच क्षुद्रता का प्रदर्शन है। पर मैं सोचता हूं सुदामा!" बाबा ने अपनी दृष्टि सुदामा पर टिका दी, "रुक्मी और शिशुपाल बार-बार ऐसा क्यों कहते रहे?"
"क्यों ?"
"इसलिए कि उनका अपना राजत्व वास्तविक नहीं था। कृष्ण के सामने उनके राजत्व की पोल खुल जाती थी। इसलिए वे कृष्ण को नकारते रहे; अन्यथा कृष्ण के राजा होने-न-होने से उसकी शक्ति में कहां अन्तर पड़ता है?"
"रुक्मी और शिशुपाल का राजत्व वास्तविक नहीं था?" सुदामा ने आश्चर्य से पूछा।
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