पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"अरे वे राजा थे क्या?" बाबा वितृष्णा से बोले, "जरासंध के कुत्ते थे। जरासंध को कृष्ण से भय लगता था तो वह उन्हें हुड़का देता था और वे भौंकने लगते थे। ज्ञान के क्षेत्र में भी जब कृत्रिम और झूठे, तथाकथित विद्वानों का आसन डोलने लगता है तो वे संकेत कर देते हैं, और उनके पालतू कुत्ते भौंकने लगते हैं। पर जरासंध भी मारा गया, रुक्मी भी और शिशुपाल भी। ज्ञान-क्षेत्र के ये बने हुए मल्ल और उनके कुत्ते भी काल के गाल में समा जायेंगे। इनकी शारीरिक मृत्यु आवश्यक नहीं है-इनकी विद्वत्ता की मृत्यु बहुत शीघ्र हो जाती है, तब ऐसे लोग कोई और धन्धा करने लगते हैं।...पर मैं तुम्हारे विषय में कह रहा था।"
"क्या?"
"यदि तुम पर किसी का अनुग्रह हो भी गया तो तुम्हारा अपना स्वभाव आड़े आयेगा। तुम किसी से मिलने नहीं जाओगे; जाओगे तो चाटुकारिता नहीं कर पाओगे; अन्याय देखकर चुप नहीं रहोगे; राजनीति की सहायता तुम नहीं लोगे।" सहसा बाबा ने रुककर सुदामा की ओर देखा, "आजकल आजीविका का क्या साधन है?'
"वही! अध्यापन। दस-बारह बटुक आते हैं, उन्हें पढ़ा देता हूं। जो कुछ वे दे जाते हैं, उसी से चलता है।"
"क्या पढ़ाते हो-दर्शन?"
"आप भी क्या कह रहे हैं बाबा!" सुदामा हंस पड़े, "इस गंवई गाँव में दर्शन पढ़ने कौन आयेगा। बच्चे हैं, थोड़ा-सा अक्षर-ज्ञान, थोड़ा-सा अंक-ज्ञान, थोड़ा-सा सामान्य ज्ञान, थोड़ा-सा धर्म-ज्ञान।"
"सुदामा जैसा मेधावी दार्शनिक बच्चों को अक्षर-ज्ञान और अंक-ज्ञान कराकर अपने परिवार का पालन करता है।" बाबा के स्वर में पीड़ा का मिश्रण था, "तो आश्रमों और गुरुकुलों में दर्शन के साधकों को ज्ञान देने का अधिकारी कौन है?"
"जो हैं वे ज्ञान दे ही रहे हैं। राजपुरुषों के सम्बन्धी, सत्ता क चाटुकार, ज्ञान के हत्यारे, बड़े-बड़े तिलक-टीका, पदवी-उपाधिधारी।" सुदामा हस पड़े।
सुशीला बच्चों को ढूंढकर ले आयी। उन्हें सुदामा को सौंपते हुए शिकायत के-से स्वर में बोली, "ये अभी भी आने को तैयार नहीं थे। शरीर में प्राण नहीं हैं और छाती फाड़कर खेलते हैं। स्वयं को इतना थका डालेंगे और फिर अचेत होकर सो जायेगे। प्रातः इन्हें जगाने के लिए मल्लयुद्ध करना पड़ता है।"
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