पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"बच्चे हैं बहू।" बाबा बोले, "अब तुम्हें भी बताना पड़ेगा कि बच्चे ऐसे ही होते हैं।"
सुदामा ने बच्चों के हाथ-पैर धुला दिये और चटाई बिछाकर उन्हें बैठा दिया। सुशीला ने चूल्हा जला लिया था। कड़ाही चढ़ाकर घी गरम होने तक उसने प्रतीक्षा की
और पहली पूरी के डालने के साथ हुई छन्न-न-न ध्वनि के साथ ही बोली, "यदि आप मित्र के सामने याचक बनकर नहीं जाना चाहते, तो द्वारका के गुरुकुल के कुलपति के पास क्यों नहीं जाते। वह तो राजनीतिज्ञ न होकर कोई विद्वान् ही होगा। उससे तो याचना नहीं करनी पड़ेगी। वह तो आपकी योग्यता के कारण ही आपका सम्मान करेगा।"
सुदामा को भोजन के प्रसंग में से निकलकर सुशीला की बात का सूत्र पकड़ने में क्षण भर लगा और सूत्र पकड़ते ही वे हंस पड़े, "तो तुम्हारे मस्तिष्क में अब भी वही बात घूम रही है।"
क्यों बाबा! ठीक नहीं कह रही हूं क्या?' सुशीला ने सुदामा से जैसे निराश होकर बाबा को सम्बोधित किया।
"कह तो ठीक ही रही हो बेटी!" बाबा बोले, "पर मैंने तो कृष्ण की उदारता की सराहना की थी, गुरुकुल के कुलपति की तो नहीं।"
"बाबा! आप फिर केवल पिताजी और मां से बातें कर रहे हैं," ज्ञान बीच में बोला, "और हमें कहानी भी नहीं सुना रहे हैं।"
"बड़ों की बातों के बीच में ऐसे नहीं बोलते बेटे!" सुदामा ने कोमल स्वर में कहा, "हम अपनी बात पूरी कर लें, फिर बाबा तुमसे भी बातें करेंगे और तुम्हें कहानी भी सुनायेंगे।"
"पिताजी! यह सदा ऐसे ही करता है।" विवेक ने बाबा के सम्मुख पहली बार मुख खोला, "मुझे अपने मित्रों से बात नहीं करने देता। समझता है, वे मेरे नहीं, इसके मित्र हैं।"
बाबा ने बड़ी रुचि से विवेक को देखा, "अरे, यह तो बोलता भी है। मैंने समझा कि एकदम चुप्पा है।"
"तो पिताजी! फिर भइया के मित्र मझसे बातें क्यों करते हैं?" आक्रोश से भन्नाए हुए स्वर में, ज्ञान ऊंचे गले से बोला, "वे मुझसे बातें करेंगे, तो क्या मैं उनसे नहीं बोलूंगा।"
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