पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"याद तो आती है बेटी! पर मैंने अपने मोह का साधारणीकरण कर लिया है।"
"कैसे?"
"जिसके घर जाता हूं, उन्हीं को अपने पुत्र, पुत्र-वधू, नाती-पोते मानकर उन्हीं से प्यार कर लेता हूं।" बाबा का स्वर स्निग्ध था, "अब सुदामा और तुम, क्या मेरे पुत्र और पुत्र-वधू नहीं हो बेटी? ज्ञान और विवेक क्या मेरे पोते नहीं हैं?"
"क्यों नहीं हैं बाबा!" सशीला बोली, "रिश्ते केवल रक्त सम्बन्ध से ही तो नहीं होते। वे तो आत्मीयता से होते हैं।"
पर बाबा ने जैसे सुशीला की बात नहीं सुनी। वे अपने में मग्न हो कहते गये, "पिछली बार मेरी पुत्र-वधू कह रही थी कि मैं घर में भी कुछ समय रहा करूं, ताकि उसे भी मेरी सेवा का अवसर मिले। तब उसे भी मैंने यही उत्तर दिया था कि जब उसके घर में कोई वृद्ध आ जाये तो उसे वह अपना ससुर मानकर उसकी सेवा कर दिया करे। वह सेवा मुझे ही प्राप्त होगी। अपने मोह को संकीर्ण करने का कोई लाभ नहीं है बेटी! वह सबके लिए कष्टप्रद है। मोह से मुक्ति का भी यही मार्ग है। अपने मोह को सूक्ष्म और विस्तृत करते जाओ। उसे स्थूल तथा संक्षिप्त मत रहने दो।"
"यही तो ज्ञान-मार्ग है बाबा!'' सुदामा बोले, "मोह को क्षीण करने का मार्ग। बुद्धि के धरातल पर जब आप अपने पुत्र तथा अन्य किसी भी युवक में भेद नहीं मानेंगे, अपने मोह को स्थगित कर, प्रत्येक युवक को समान दृष्टि से देखेंगे, तो क्रमशः आप प्रत्येक जीव के प्रति समदृष्टि विकसित कर लेंगे। तब आपके लिए जीव और जीव का भेद तिरोहित हो जायेगा। सब एक हो जायेंगे।"
"अच्छा दार्शनिक महोदय!" बाबा ने हास्य की मुद्रा में हाथ जोड़े, "हमारा प्रणाम लीजिये और एक तथा दूसरे दर्शन का भेद तिरोहित कीजिये। मैं संसार में भाई-चारे से. सबसे मिलकर, स्वार्थों और संकुचित सम्बन्धों से मुक्त होकर एक सुविधाजनक जीवन जीने का व्यावहारिक मार्ग खोज रहा हूं और आप संसार को ही विलुप्त किये दे रहे हैं।"
सुदामा मुस्कराये, "आपसे मेरा यह मतभेद तो सदा ही बना रहेगा बाबा!"
"तो बना रहे।" बाबा भी हंस पड़े, "भेद बना रहेगा तो तुम्हारा ज्ञानमार्गीय अभेद स्थापित नहीं होगा।"
"आप अपनी चाल चल गये बाबा!" सुदामा खुलकर हंसे, "मैं दार्शनिक ऊंचाई पर, इस एक सामान्य वाक्य से मात खा गया।"
"अच्छा बाबा! एक बात बताइये।" सुशीला ने कहा, "बहुत दिनों से पूछना चाह रही हूं, पर साहस नहीं कर पाती।"
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