पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"पूछो बेटी! मुझसे प्रश्न पूछने के लिए साहस की आवश्यकता नहीं होती। साहस तो आचार्यों से प्रश्न करने के लिए चाहिए, जो जिज्ञासा को अपना विरोध और अवज्ञा मानते हैं।" बाबा रुककर बोले, "मैं तो जीता ही प्रश्नों के बीच हूं। मेरे लिए जिज्ञासा ज्ञान के नये मार्ग का द्वार है...विरोध नहीं।"
"साहस की बात इसलिए कही बाबा!'' सुशीला ने स्पष्टीकरण दिया, "सुना है कि कई बार आप बड़े-बड़े लोगों को भी दुत्कार देते हैं। उनसे मिलना तक स्वीकार नहीं करते।"
"ठीक सुना है बेटी!" बाबा खिलंदरे बच्चे के समान उत्फुल्ल दिखाई पड़ रहे थे, "बड़ा कौन है और छोटा कौन...यह बड़ा जटिल प्रश्न है। जिन्हें दुनिया बड़ा आदमी मानती है, मेरे लिए वे मल के ढेर के समान तुच्छ हैं। अपने प्रकार का एक बड़ा आदमी मैं स्वयं हूं।" वे हंसे, "हम जिससे मिलना चाहते हैं, स्वयं चलकर उसके घर चले जाते हैं, और जिससे न मिलना चाहें, उसके लिए हम बहुत बड़े आदमी हैं। उसके लिए हमारे पास तनिक भी समय नहीं होता। हम बहुत सुलभ हैं और बहुत अलभ्य। हम महाकाल को अपने कन्धों पर लिये चलते हैं...पर तुम्हारा प्रश्न क्या है बेटी?"
"आप आस्तिक हैं बाबा! या नास्तिक?"
बाबा हंसे, "मैं मधुर नास्तिक हूं बेटी। मैं त्रिगुणात्मक सृष्टि को देखता हूं। उस व्यवस्था और तंत्र को भी मानता हूं, जिसके अधीन यह सृष्टि कार्य करती दिखाई पड़ती है; किन्तु अपने ही जैसे मनुष्य के रूप मंष किसी अन्य लोक में रहने वाले ईश्वर की कल्पना अभी मेरी समझ में नहीं आयी।"
"तो नास्तिक ही कहिये। मधुर नास्तिक क्या ?"
"मधुर नास्तिक इसलिए कहता हूं, क्योंकि आस्तिकों से मेरा सैद्धान्तिक विरोध होते हुए भी, व्यावहारिक विरोध नहीं है। मेरी पत्नी अपने देवस्थानों पर मुझे साथ ले जाती है, तो चला जाता हूं। उस पर अपने विचारों को बलात् आरोपित नहीं करता।"
"द्वारका के राजकीय गुरुकुल में आपने श्रीकृष्ण के विचार भी सुने होंगे बाबा!" सशीला के स्वर में एक पुलक थी, "वे आस्तिक हैं या नास्तिक?"
बाबा ने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया। वे कुछ मनन करते-से बैठे रहे। जब बोले तो उन्होंने उत्तर स्पष्ट 'हां' या 'ना' में नहीं दिया, "बात कुछ उलझी हुई है बिटिया! वह आस्तिकों को नास्तिक लगेगा और नास्तिकों को आस्तिक।"
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