पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"इसका क्या अर्थ हुआ?"
"अर्थ यह कि परम्परागत मान्यताओं पर तो कृष्ण चलता नहीं, न ही उसे इस बात का भय है कि उसके किसी विशिष्ट कृत्य से उसे किसी विशिष्ट वर्ग में डाल दिया जायेगा। वह तो मौलिक चिन्तन कर उस पर आचरण करने वाला अद्भुत व्यक्ति है। कभी लगता है कि वह पूरा रूढ़िवादी आस्तिक है। कभी लगता है कि वह घोर नास्तिक है और कभी वह इस प्रकार बातें करता है, जैसे वह स्वयं ही ईश्वर हो।"
लगा, बाबा द्वारका के गुरुकुल में ही कहीं खो गये हैं।
सुशीला कुछ सोचती खड़ी रही। सुदामा खाट पर लेटे हुए खुले आकाश को देख रहे थे।
सुशीला ने बात आगे नहीं चलायी तो बाबा बोले, "अब तुम जाकर सो जाओ बेटी! थक गयी होगी! प्रातः जल्दी उठना भी तो होगा।"
बाबा ने अपना झोला टटोला और उसमें से तुलसीदल की एक माला निकाल ली।
सुदामा ने दृष्टि फेरी, जैसे वे अब तक सब कुछ देख और सुन रहे थे, "मधुर नास्तिक महोदय! यह तुलसीदल की माला किसलिए है?"
"तुम जैसे आस्तिकों को स्मरण करने के लिए। जब भी तुमसे दूर होता हूं और तुम्हारी याद आती है तो तुम्हारे नाम की एक माला फेर लेता हूं। कभी किसी दुष्ट पर क्रोध आ रहा हो तो उसके नाम की एक उल्टी माला फेर देता हूं, ताकि उसके सिर में पीड़ा होने लगे।"
सुदामा हंस पड़े, "इस समय मैं तो आपके पास हूं; इसलिए मेरी याद आने का तो प्रश्न ही नहीं है। किसी दुष्ट की याद हो आयी है क्या?"
"नहीं!" बाबा गम्भीर थे, "इस समय तो अपनी पत्नी और बच्चों का ध्यान आ गया है। तुम भी अब सो जाओ।"
बाबा ने लेटकर आँखें मूंद लीं; किन्तु उनकी माला के मनके फिरते रहे।
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- अभिज्ञान