पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
तीन
बाबा की नींद मुंह अंधेरे ही खुल गयी, पर उनका मन उठने को नहीं हुआ। हवा काठ ठण्डी हो गयी थी, या बाबा के बूढ़े शरीर को ही ठण्डी लग रही थी। बाबा ने चादर ओढ ली। सिर भी चादर से ढक लिया। हां! ऐसे ही अच्छा लग रहा है। इस वार्धक्य में पहले जैसी नींद तो रही नहीं। सोना कम हो गया है, लेटना ही अधिक रह गया है। नींद कभी भी खुल जाती है...रात के किसी भी प्रहर में। जब लेटे-लेटे बहुत देर हो जाती है...और नींद नहीं आती, तो बाबा अपनी माला निकाल लेते हैं...
पर आज हाथ भी चादर से बाहर निकालने को मन नहीं हो रहा था। वैसे रात भी अधिक नहीं थी। सुबह होने के कुछ आभास वातावरण में थे।
अपनी उसी चादर-समाधि में, बाबा को संकेत मिला कि सुदामा और सुशीला उठ गये हैं। उन्होंने बच्चों को उठाया है। फिर उन्हें लगा कि सुदामा और बच्चे कहीं चले गये हैं। पर उन लोगों ने बाबा को नहीं जगाया। स्वर दबाकर बोलने से लगता था कि ये लगातार सजग हैं कि बाबा सो रहे हैं और उनकी नींद में विघ्न नहीं पड़ना चाहिए।
जब चादर-समाधि से सुख मिलने के स्थान पर ऊब होने लगी, तो बाबा उठ बैठे।
थोड़ी ही देर में बाबा चलने को तैयार थे। उन्हें तैयारी के लिए करना ही क्या था। न कोई स्नान-ध्यान, न कोई पूजा-अर्चना। झोला उठाया और चल दिये।
"अभी दो-एक दिन और ठहरते बाबा!" सुशीला ने अनुरोध के स्वर में कहा, "आप आते हैं तो लगता है कि मेरे मायके का कोई ऐसा व्यक्ति आ गया है, जो इनके ससुराल का नहीं है।"
बाबा ने औचक दृष्टि से सुशीला को देखा, "पहेलियां बुझा रही हो बिटिया!"
"नहीं बाबा!" सुशीला कुछ संकुचित हुई, "सामान्यतः पुरुष अपने ससुराल से आये लोगों के साथ एक दूरी बनाये रखता है। या फिर ऐसे कहूं कि आप हम दोनों को ही अपने सम्मिलित अतिथि भी लगते हैं और अपने-अपने पक्ष के भी।"
"तुम दोनों का पक्ष अलग-अलग है क्या?" बाबा मुस्कराये, "मैं तो तुम दोनों को एक ही मान कर आता हूं।"
"हैं तो हम दोनों एक ही। पर एक वस्तु की भी तो विभिन्न दिशाएं होती हैं।"
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- अभिज्ञान