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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


"तू बहुत समझदार है बेटी!" बाबा बोले, "मन होता है कि तुम लोगों के साथ अधिक समय तक ठहरूं। पर, मेरी प्रकृति मुझे कहीं अधिक ठहरने ही नहीं देती।" बाबा ने इधर-उधर देखा। सुदामा आसपास कहीं दिखे नहीं, "तुझे एक सीख देता हूं बेटी! उस पर विचार करना। जंच जाये तो उस पर चलना।"

बाबा की ओर उत्सुक दृष्टि से देखती सुशीला चुप खड़ी रही।

"सुदामा को किसी भी चाकरी के लिए अधिक बाध्य मत करना। स्वाभिमानी आदमी है, और फिर उसका मन एक ओर रमा हआ है। जिसका मन किसी एक ओर लग जाये, वह अन्य किसी काम का नहीं रहता। उसे उसकी प्रकृति के प्रतिकूल कार्य करने के लिए बाध्य किया जाये तो उसमें या तो विरोध जागता है या द्वन्द्व। विरोध में वह तुम्हारे काम का नहीं रहेगा और द्वन्द्व में तो वह अपने काम का भी नहीं रहेगा।"

सुशीला ने श्रद्धा भरी आँखों से बाबा को देखा, "मैं आपकी बात याद रखूंगी, बाबा...!'' क्षण भर चुप रहकर पुनः बोली तो उसके स्वर में हल्की-सी पीड़ा थी, "मुझे स्वयं धन की कोई विशेष लालसा नहीं है। मेरे पिता ने इन्हें, इनकी विद्वत्ता के कारण ही अपना जामाता चुना था...पर बाबा! अपने बच्चों का कष्ट मझसे देखा नहीं जाता। बच्चों के जन्म से पहले हमारा जीवन एकदम भिन्न प्रकार का था; पर बच्चे...उनके पालन-पोषण के लिए आवश्यकता भर धन तो चाहिए ही।"

"तुम्हारी बात मैं समझता हूं बेटी! सन्तान के प्रति इतना भी मोह न हो तो अपने दायित्व का पालन कोई कैसे करेगा। इसीलिए तो प्रकृति ने मोह की सृष्टि की है। यह मोह तो प्रकृति का आदेश है। बच्चों के समर्थ होने तक उनका पोषण करने का दायित्व तो सामान्य जीव-जन्तु भी निभाते हैं। तुम तो मनुष्य हो और फिर मां।"

"बस इसी दायित्व के मारे, कभी-कभार उन्हें भी कुछ कह देती हूं," सुशीला बोली, "नहीं तो क्या मैं नहीं जानती कि उनकी आत्मा क्या चाहती है। उनका सन्तोष क्या मुझे प्रिय नहीं है। क्या मेरी इच्छा नहीं होती कि मैं उनसे कहं कि वे निश्चिन्त होकर अपना चिन्तन-मनन, लेखन-अध्ययन करें। क्या मेरी इच्छा नहीं होती कि मेरे पति ज्ञान के क्षेत्र में उत्तरोत्तर उन्नति करें। उनका नाम हो, वे ख्याति पायें, उनकी प्रतिष्ठा हो।"

"तुम सुदामा की सच्ची संगिनी हो सुशीला!" बाबा बोले, "तुम्हारी ये बातें सुनकर और स्वयं पर तुम्हारा विश्वास पाकर मैं तुम्हें कुछ और भी कहने का साहस कर रहा हूं।'

"कहिये।"

"बुरा तो नहीं मानोगी?"

"ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता, बाबा!"

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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