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अभिज्ञान
अभिज्ञान
प्रकाशक :
राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशित वर्ष : 2010 |
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 4429
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आईएसबीएन :9788170282358 |
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"तो बेटी! बच्चों का जन्म, पालन-पोषण और रक्षण-माता-पिता का सम्मिलित दायित्व है। हमने मनुष्येतर जीव-जन्तुओं की बात की है। तुम देखोगी कि सारे जीव-जन्तुओं में ये काम नर-मादा दोनों ही करते हैं। हमारा समाज भी इसे सम्मिलित रूप से ही निभा रहा है। नर-नारी के कार्य-विभाजन में आजीविका अर्जित करने का कार्य न जाने क्यों पुरुष के हिस्से में ही आया है; या शायद मुझे कहना चाहिए कि पुरुष ने यह कार्य स्वयं ले लिया है, ताकि स्त्री आर्थिक दायित्वों के साथ आर्थिक अधिकारों से भी वंचित हो जाये और परिणामतः परुष के अधीन रहे...मेरी बात समझ रही हो?"
सुशीला ने स्वीकृति में सिर हिलाया।
"इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि नारी को यह नहीं मान लेना चाहिए कि वह आजीविका-उपार्जन के लिए सर्वथा पुरुष की आश्रित है। यदि पुरुष उसका भरण-पोषण नहीं करता, या नहीं कर सकता तो क्या वह भूखी मर जायेगी? क्या अपने लिए और बच्चों के लिए वह उपार्जन नहीं करेगी? यदि पति रोगी हो जाये, पंगु हो जाये, तो क्या पत्नी सारे परिवार को भूखा मरने देगी?"
"वह स्थिति और होती है बाबा!"
"हां! वह असमर्थ पति का दायित्व उठाने के लिए है।" बाबा बोले, "पर कभी-कभी पति को और अधिक समर्थ बनाने के लिए भी पत्नी को सक्षम बनना पड़ता है...।" बाबा कुछ रुककर मुस्कराये, "मैं तो और आगे बढ़कर यह भी मानता हूं कि अपने आर्थिक अधिकारों को प्राप्त करने और उसके माध्यम से अपनी सामाजिक-राजनीतिक स्वतन्त्रता पाने के लिए भी स्त्री को अपनी आजीविका के लिए आत्मनिर्भर होना चाहिए।"
सुशीला किसी द्वन्द्वजनित संकोच में चुप रही, फिर उसने आँखें उठाकर बाबा की ओर देखा, जैसे पूछ रही हो- 'कहूं या न कहूं।' अन्त में जैसे स्वयं ही निर्णय कर बोली, "यदि पति को बुरा लगे? वह स्वयं को अपमानित अनुभव करे?"
"पति को बुरा लगेगा," बाबा मुस्कराये, "क्योंकि उसके अधिकारों को चुनौती दी जायेगी। उसका साम्राज्य एकछत्र नहीं रहेगा। पर उसका बुरा लगना या तो स्वार्थवश है या संस्कारवश। ये दोनों ही बातें न्यायसंगत नहीं हैं। पत्नी को चाहिए कि पति को यथार्थबोध करा दे। यथार्थ पर आधृत प्रेम अधिक प्रबल और स्थायी होता है।" बाबा ने स्वर को हल्का करते हुए कहा, "पर सुदामा बुरा नहीं मानेगा। उसे मैं जानता हूं। तर्क, उसके स्वार्थ को भी जीत सकते हैं और उसके संस्कार को भी।"
सुशीला कुछ नहीं बोली। कुछ सोचती हुई चुपचाप खड़ी रही।
"अच्छा बेटी! अब मैं चलूं।" बाबा ने अपना झोला उठा लिया, "सुदामा कहां गया हुआ है?"
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