पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"वे बाहर किसी वृक्ष की छाया में बच्चों को पढ़ा रहे होंगे।"
"और बच्चे?"
"वे भी उन्हीं के साथ होंगे।"
बाबा ने सुशीला के सिर पर आशीष का हाथ रखा, "अपने और परिवार के गौरव की रक्षा में समर्थ बनो बेटी!"
बाबा कुटिया के बाहर निकलकर खड़े हो गये। "किस वृक्ष की छाया में पढ़ा रहा है सुदामा?"
पर इसके पहले कि वे सुदामा को ढूंढकर उन तक पहुंचते, सुदामा स्वयं ही उनके पास आ गये, "अरे! झोला टांगकर आप कहां चल दिये बाबा?"
"बस अब चल रहा हूं। तुम्हीं को देख रहा था।"
"अभी से कैसे चले जायेंगे?" सुदामा बोले, "अभी तो जमकर आपसे कोई दार्शनिक विवाद भी नहीं हुआ।"
"तेरा-मेरा दार्शनिक विवाद भी कोई विवाद है।" बाबा हंसे, "विवाद ही करना है तो किसी दार्शनिक से कर। मैं कोई दार्शनिक हूं क्या?"
"बाबा...।"
"अच्छा रहने दे!" बाबा ने सुदामा की बांह पकड़ी और एक ओर चल पड़े, "चल! थोडी दर तक चलकर मुझे विदा कर आ। तुमसे कुछ बातें भी करनी हैं।"
"तो मैं उन विद्यार्थियों को जाने को कह दूं।"
"जा कह दे...और बच्चे कहां हैं तेरे?"
"शायद वन की ओर गये हों। बुलाऊं क्या?"
"नहीं! रहने दे। इस बार भी उन्हें कहानी नहीं सुना सका। तेरा छोटा बेटा शिकायत करेगा।"
सुदामा अपने बटुकों को विदाकर लौट आये और बाबा के साथ चलने लगे। बोले कुछ नहीं। जाने, जाते समय बाबा क्या बात करना चाहते हैं।
"देख सुदामा," बाबा बोले, "हम-तुम दोनों, कृष्ण से बढ़कर नहीं तो, कृष्ण के ही समान स्वधर्म के सिद्धान्त के उन्नायक हैं। सिद्धान्त एकदम ठीक है। व्यक्ति को अपना धर्म पहचानना ही चाहिए। पर एक बात है।"
सदामा ने बाबा की ओर देखा।
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- अभिज्ञान