पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
|
4 पाठकों को प्रिय 10 पाठक हैं |
कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"स्वधर्म को अधिक-से-अधिक महत्त्व देते जाने के कारण मैं बहुत उच्छृखल हो | गया हूं। किसी अनुशासन को नहीं मानता।"
"तो क्या हुआ बाबा?" सुदामा कुछ अधीर हो उठे थे।
"मेरे अपने बच्चों को आज शिकायत है कि मैंने उनका ठीक से लालन-पालन नहीं किया।"
"क्या किसी ने आपसे कुछ कहा है?"
"हां! पिछली बार जब मैं घर गया तो मेरी पत्नी कह रही थी कि एक-दो नहीं-मेरी सारी सन्तानों को यह शिकायत है कि मैं अपने स्वधर्म के चक्कर में अपने कर्तव्य और दायित्व को भूल गया। कर्तव्य का निर्वाह स्वधर्म से नहीं, विवेक से होता है। विवेक थोड़ा-बहुत धन और अनुशासन चाहता है। गृहस्थ होते हुए भी मेरी उच्छृखलता ने गृहस्थी के बन्धन नहीं माने। मैं कभी जमकर घर पर रहा ही नहीं कि देखता कि मेरे बच्चों का लालन-पालन कैसा हो रहा है, उनकी शिक्षा-दीक्षा कैसी हो रही है।... अब मैं चाहूं भी तो कुछ नहीं हो सकता; और अब तो दायित्व ढोने की न वय है, न सामर्थ्य, न प्रकृति।" बाबा चुप हो गये।
सुदामा ने बाबा को परीक्षक की दृष्टि से देखा, "आपका संकेत क्या मेरी ओर है बाबा?"
"हां सुदामा! मैं यही कहना चाह रहा हूं। गृहस्थी के अपने दायित्व होते हैं। पति अपनी पत्नी का भरण-पोषण न कर पाये, पिता अपनी सन्तान की आवश्यकताओं की पूर्ति न कर पाये, तो क्या यह नहीं कहा जायेगा कि वह अपने धर्म से चूक गया?"
सुदामा चलते-चलते रुक गये।
"बाबा! यहां किसी पेड़ की छाया में बैठ जायें। आप तो इतना बड़ा आक्षेप लगाकर चल देंगे और पीछे मेरा क्या होगा? मैं क्या इतने बड़े आक्षेप का बोझ उठाये, अपना काम कर सकूँगा?"
बाबा ने मुख से कुछ नहीं कहा, पथ छोड़, किनारे होकर एक पेड़ की छाया में बैठ गये।
"यह आक्षेप नहीं है सुदामा! यह संकेत है। तुम्हें अपनी आजीविका के लिए कुछ अधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता है।"
"पर मेरी ज्ञान-साधना?" सुदामा ने कुछ इस भाव से बाबा की ओर देखा, जैसे उन्होंने गाली दी हो।
"मैं ज्ञान का विरोधी नहीं हूं।" बाबा अपने पोपले मुख से बड़े मधुर ढंग से मुस्कराये, "तेरी-मेरी मित्रता ही इस ज्ञान-साधना को लेकर है। मैं स्थान-स्थान पर तुम्हारी बुद्धि, परिश्रम और ज्ञान की प्रशंसा करता रहता हूं। पर सुदामा, ज्ञान अपने-आप में ही कोई लक्ष्य हो सकता है क्या?"
|
- अभिज्ञान