पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा कुछ क्षण सोचते रहे, "नहीं। ज्ञान स्वयं अपना लक्ष्य नहीं हो सकता।"
"उसका लक्ष्य क्या है?"
"जीवन को अधिक उच्च धरातल पर स्थापित करना।"
"जीवन का एक अंश, ज्ञानी का, अपना और उसके परिवार का जीवन भी तो है।" बाबा धीरे-से बोले, "क्या तुम अपने ज्ञान से, अपने परिवार के जीवन को थोड़े-से उच्च धरातल पर स्थापित नहीं कर सकते?"
"बाबा! ज्ञान का लक्ष्य पैसा कमाना नहीं है। ज्ञान का यह व्यवसाय अधम कार्य
है।" सुदामा आवेश में थे।
"यदि ज्ञान-साधना के साथ-साथ किसी अन्य व्यवसाय को नहीं चला सकते तो ज्ञान के ही किसी अंश का व्यवसाय करो। सारे आचार्य, पण्डित, ज्ञानी-यही कर रहे हैं।" बाबा की शान्ति, सुदामा के आवेश से विचलित नहीं हुई।
"वे ठीक कर रहे हैं?"
"मैं ज्ञान अथवा विद्या का प्रयोजन, धनार्जन नहीं मानता।" बाबा अपने धैर्य को निभाये जा रहे थे, "पर मैं बहुत सूक्ष्मता में न जाते हुए, एक मोटा-स्थूल प्रश्न पूछता हूं। तुम्हारे उस ज्ञान का भी क्या लाभ, जो अपने परिवार के पेट के लिए रोटी भी न जुटा पाये?"
सुदामा किंकर्तव्यविमूढ़-से खड़े रह गये।
"बुरा लगा?" बाबा ने पूछा।
"धक्का लगा।"
"तुम्हें मुझसे ऐसे अनघड़ प्रश्न की अपेक्षा नहीं थी।" बाबा मुसकराये, "पर यथार्थ के प्रति स्वप्नजीवियों की आँखें खोल देना मुझे अच्छा लगता है। मैं स्वयं बहुत व्यावहारिक और जीवन में भौतिक दृष्टि से सफल व्यक्ति नहीं हूं; किन्तु इस जीवन को मैं सूक्ष्म सिद्धान्तों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण मानता हूं। जब तक देह है, देह की बाध्यताएं भी हैं। मेरी भूलों को तुम मत दुहराओ।"
लगा, सुदामा कोई निश्चित उत्तर देने की स्थिति में नहीं हैं।
"अच्छा! चलता हूं।" बाबा बोले, "तुम अब लौट जाओ। चलते समय तुम्हारे बच्चों से मिल नहीं पाया हूं। उन्हें मेरा प्यार देना।" बाबा ने ध्यान से सुदामा को देखा, "और यदि बहुत कठिन न हो तो एक बार अपने सखा कृष्ण से मिल आना।"
बाबा ने प्यार भरी हथेली से सुदामा का कन्धा थपथपाया और जाने के लिए मुड़ गये।
सुदामा मुख से कुछ कह नहीं सके। उन्होंने चुपचाप अपने हाथ जोड़ दिये।
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