पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"अच्छा होता, तूने भी छात्र धर्म अपनाया होता।" बाबा कह रहे थे, "यादव सेनाओं के साथ युद्ध में गया होता। किसी युद्ध में शरीर पर एक-आध घाव खाया होता। कुछ थोड़े-से शत्रुओं का वध किया होता। तब तुझे भी वीर की पदवी भरी जवानी में मिली होती। कोई पद भी मिलता और धन भी। तब तू न इस प्रकार अख्यात रहता और न धन के अभाव में पीड़ित होता।"
"धन का अभाव मुझे अवश्य है बाबा!" सुदामा बोले, "पर वह मेरा लक्ष्य ही नहीं है, तो उसके अभाव में मैं पीड़ित क्यों हूंगा?"
"ठीक कहता है तू," बाबा का स्वर उदास था, "पर प्रत्येक गृहस्थ को धन की आवश्यकता तो होती ही है। तुझे धन नहीं चाहिए, क्योंकि तूने जीवन को देखने की एक ऐसी दृष्टि पायी है, जिसमें धन का...आवश्यकता भर धन का भी कोई महत्त्व नहीं है। पर तेरी पत्नी! तेरे बच्चे! उन्होंने क्या अपराध किया है कि उन्हें वे सुविधाएं भी न मिलें, जो प्रत्येक घर में पत्नी और बच्चों को मिलती हैं?"
"अपराध का प्रश्न कहां है बाबा!" सुदामा का स्वर गम्भीर था, "जब मेरे साथ सम्बन्ध है, तो मेरे अच्छे-बुरे को भी उन्हें भुगतना ही होगा। मेरे जीवन में यदि कोई उपलब्धि हुई...धन की बात नहीं कर रहा हूं, वैचारिक उपलब्धि, ख्याति या ऐसी ही कोई अभौतिक वस्तु...तो उसका लाभ वे पायेंगे या नहीं? ऐसे में मेरे जीवन के अभावों में भी तो उनकी सहभागिता होगी ही।...और फिर सुदामा तो जीवन के भौतिक धरातल पर जीता ही नहीं है। कीचड़ में बिलबिलाते एक कीड़े और स्वच्छ वायुमण्डल में जीने वाले एक जीव में कोई अन्तर तो होगा बाबा?"
"तुमसे असहमत नहीं हूं।" बाबा बोले, "विवेकपूर्ण स्वच्छ जीवन जीने का पक्षपाती मैं भी हूं। इसीलिए तो गृहस्थी के बन्धन मुझे बांध नहीं पाये। अपने परिवार के साथ रहना तो दूर, टिककर कहीं एक स्थान पर ही नहीं रह सका...पर जब तेरी पत्नी और बच्चों को जीवन की आवश्यकताओं के अभावों की असुविधा झेलते देखता हूं तो मुझे कष्ट होता है। तू कोई दूसरा काम क्यों नहीं करता, जिससे कुछ धन अर्जित कर सके?"
"वह मेरा स्वधर्म नहीं है बाबा!" सुदामा का स्वर पूर्णतः आश्वस्त था, "मेरा सखा कृष्ण कहा करता था कि स्वधर्म के अनुसार जीना ही श्रेष्ठ है। शायद इसीलिए मैंने शस्त्र-विद्या नहीं सीखी, केवल दर्शनशास्त्र पढ़ा।...कृष्ण की बात तो है ही; पर अब तो मैं स्वयं ही अनुभव करने लगा हूं कि स्वधर्म में जीना असुविधाजनक हो सकता है, पर यह कष्टदायक नहीं है। असुविधा कोई सत्य तो है नहीं, एक अनुभूति ही तो है। मेरी प्रकृति, मेरा स्वधर्म धनार्जन नहीं है। मैं अपनी अन्तःप्रेरणा से कार्य करता हूं। उस काम में रस पाता हूं। मुझे अपनी सार्थकता का बोध होता है। धनार्जन मेरा लक्ष्य हो जाये तो भौतिक असुविधाएं कदाचित् समाप्त हो जायें, पर इनसे मेरे कष्ट बढ़ जायेंगे।"
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