पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"समझता हूं।" बाबा का स्वर स्नेह में छलछलाया हुआ था, "मुझसे अधिक कौन समझेगा! मेरी अन्तःप्रेरणा मुझे धक्के मार-मारकर चलाती रही। एक स्थान पर टिककर रहना मेरी प्रकृति नहीं है। मेरा स्वधर्म, मेरी प्रकृति तो गति है, प्रवाह...चलते रहना। इससे मेरे परिवार को असुविधा नहीं होती क्या? बहुत होती है। वे चाहते हैं कि मैं टिककर उनके साथ रहूं। पर यदि मैं उनके साथ रहा, मेरी गति रुक गयी तो मेरा दम घुट जायेगा...।"
सुशीला ने बच्चों के साथ कुटिया में प्रवेश किया।
"बाबा को प्रणाम करो।"
बाबा ने बच्चों पर दष्टि डाली। दो दबले-पतले लडके उनके सामने खडे थे। बडा विवेक, कोई बारह-तेरह वर्ष का था। शरीर पर घुटनों से ऊपर तक की एक स्वच्छ धोती थी। उसे लंगोटी का विस्तृत रूप कहा जा सकता था। शेष शरीर नंगा था। उसकी पसलियां सुविधा से गिनी जा सकती थीं। घुटनों की गांठें टांगों में से अलग दिखाई पड़ रही थीं। ज्ञान, सात-आठ वर्ष का रहा होगा। शरीर का गठन उसका भी वैसा ही था। पर अभी उसके शरीर का मांस कछ कोमल था। वय के साथ उसका शरीर बढ़ेगा और पौष्टिक आहार नहीं मिलेगा तो उसकी भी वही स्थिति होगी।
बाबा ने दोनों को अपनी बांहों में घेरकर अपने निकट खींच लिया। "मुझे पहचानते हो?"
"आप हमारे बाबा हैं।" विवेक ने भीरु स्वर में कहा।
"हां! तुम्हारे बाबा और मैं मित्र थे, इसलिए मैं तुम्हारा बाबा हूं।" बाबा हंसे, "अच्छा, यह बताओ, तुम दोनों अधिक खेलते हो या अधिक पढ़ते हो?"
"दोनों खिलंदड़े हैं।" सुदामा बोले, "अध्ययन में, दोनों में से नहीं है। मेरे पिता का ज्ञान आश्रम भर में फैला था. मेरा एक कुटिया तक सीमित रह गया है। इनके समय तक शायद वह एक झोले में समाने योग्य ही रह जाये।"
"कितना पढ़ेंगे अभी से?' सुशीला ने सुदामा की बात काटकर, बाबा की ओर देखा, "ये तो चाहते हैं कि बच्चे अभी से इन्हीं के समान, इन्हीं के बराबर अध्ययन करें।"
"मेरे बराबर न करें।" सदामा बोले, "पर उनकी प्रवृत्ति तो दिखाई पड़े।"
"प्रवृत्ति और कैसे दिखाई पड़ेगी?" सुशीला के स्वर में रोष था, "उनका खेल भी ताल-पत्रों के ग्रन्थ बनाने तक सीमित है।"
"नहीं। यह उचित नहीं है।" बाबा स्नेह भरे स्वर में बोले. "बच्चों का स्वस्थ शारीरिक विकास बहुत आवश्यक है। उन्हें खेल का पूरा समय मिलना चाहिए और पौष्टिक भोजन भी..."
"स्वस्थ तो हैं बाबा!" सुदामा टालते-से बोले, "दिन भर भागते-दौड़ते हैं। पतले हो सकते हैं, पर दुबले नहीं हैं। खड़े-खड़े चक्कर नहीं खा जाते और चलते-चलते गिर नहीं पड़ते।"
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