पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
चार
ग्राम-प्रमुख ने कुछ विचित्र दृष्टि से सुदामा को देखा : यह निर्धन ब्राह्मण उन्हीं के ग्राम का वासी है-वे जानते थे। अनेक बार मार्ग में या किसी उत्सव-समारोह में उससे भेंट हुई थी। राम-राम भी होती ही थी। सुदामा ने कभी उनका अपमान नहीं किया था; जब भी मिला, बड़ी नम्रता और शालीनता से मिला। पर यह ब्राह्मण निर्धन होने पर भी कभी उनके द्वार पर नहीं आया था। न निर्लज्ज चाटुकारिता के लिए, न अवसर पाकर उनसे सम्पर्क बढ़ाने के लिए। इसलिए ग्राम-प्रमुख को सदा यही लगा था कि सुदामा उनकी अवहेलना करता है।
आज सुदामा को अपने द्वार पर आया देख, ग्राम-प्रमुख असमंजस में पड़ गये। एक निःस्वार्थ और स्वाभिमानी ब्राह्मण को अपने घर में अतिथि रूप में आया समझकर स्वयं को धन्य माने, या सदा अपनी अवहेलना करने वाले इस कंगले को अपनी और उसकी ठीक-ठीक स्थिति समझा दें?
सुदामा को अपना स्वागत एक विद्वान् पण्डित के अनुकूल न लगकर, एक याचक के समान ही लगा; यद्यपि अभी ग्राम-प्रमुख को उनका उद्देश्य ज्ञात ही नहीं था। सुदामा का मन बुझ गया...याचना तो याचना ही है, चाहे अपने भूखे पेट के लिए हो या सारे ग्राम-प्रान्तर की अगली पीढ़ी के उत्थान के लिए, पर अभी तो यह व्यक्ति जानता ही नहीं है कि वे आये किसलिए हैं।
तो क्या शासक, चाहे छोटा हो या बड़ा, अपनी प्रजा से इसी प्रकार उपेक्षापूर्ण व्यवहार करता है? यह तो मात्र ग्राम-प्रमुख ही है, शूर कुल का नायक, यादव श्रेष्ठ कृष्ण, अपने प्रासाद में आये, सामान्य जन से कैसे मिलता होगा? कृष्ण, उनका सहपाठी और मित्र था तो यह ग्राम-प्रमुख भी तो उन्हीं के ग्राम का वासी है। क्या इससे उनका सम्बन्ध, कृष्ण से भी अधिक निकटता का नहीं है? कहां ऋषियों की कल्पना है कि विद्वान चक्रवर्ती राजाओं के दरबार में भी सम्मानजनक, उच्च आसन पायें, और कहां यह साधारण ग्राम-प्रमुख उनकी अवज्ञा कर रहा है। पर अब आ ही गये हैं तो लौट जाने का कोई कारण नहीं था। अब तो बात कर ही लेनी चाहिए।
"आर्य!"
"मुझे ग्राम-प्रमुख कहो।"
सुदामा कुछ अटपटा गये। यह व्यक्ति एक क्षण के लिए भी नहीं भूल सकता कि यह ग्राम-प्रमुख है; और दूसरे व्यक्ति को भी याद दिलाये रखना चाहता है। यह व्यक्ति एक पद पर नहीं बैठा है, वह पद ही इसके सिर पर बैठा हुआ है। यह व्यक्ति नहीं है, इसलिए 'आर्य' नहीं है, पद है, इसलिए 'ग्राम-प्रमुख' है।
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