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अभिज्ञान
अभिज्ञान
प्रकाशक :
राजपाल एंड सन्स |
प्रकाशित वर्ष : 2010 |
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ :
सजिल्द
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पुस्तक क्रमांक : 4429
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आईएसबीएन :9788170282358 |
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
पर चाकरी के लिए क्या वे द्वारका जायें। जाकर कृष्ण से कहें कि मैं तुम्हारा मित्र हं, मुझे कोई चाकरी दो। कितनी भ्रष्ट बात है। राजनीतिक सत्ताओं के उतार-चढ़ाव के साथ जब लोग अपने सम्बन्ध, सम्पर्क, जाति अथवा क्षेत्र के आधार पर लाभ उठाने का प्रयत्न करते हैं तो सुदामा उन्हें घृणित दृष्टि से देखते हैं। राजकीय नियुक्तियां योग्यता के आधार पर होनी चाहिए, राजनीति के आधार पर नहीं। उन्होंने सदा यही चाहा है कि शासक के आसपास के लोग अपना दायित्व समझें, अपना स्वार्थ भुलाकर प्रयत्न करें कि शासक को सुशासन में सहयोग दें। पर होता उसका उलटा है।
शासक जो भी हो, उसके निकट सम्बन्धी और मित्र शासन की जड़ों में स्थापित न्याय को खाने लगते हैं। परिणामतः शासन की जड़ में से न्याय लुप्त हो जाता है। अन्याय, यथार्थ और पक्षपात पर आधृत शासन प्रजा का हितकारी कैसे हो सकता है?
सुदामा किस मुंह से कृष्ण के पास जायें और कहें कि उनकी मैत्री के मूल्य-स्वरूप उन्हें राजकीय गुरुकुल में कोई नियुक्ति दी जाये? सुशासन में कृष्ण की कोई सहायता करने के स्थान पर, उसे भ्रष्टाचार की ओर प्रवृत्त करें? सुदामा कितने भी योग्य हों, किन्तु प्रजा का बच्चा-बच्चा यही कहेगा और मन से विश्वास करेगा कि सुदामा को मैत्री के आधार पर नियुक्त किया गया है...सुदामा के मन में कितनी ग्लानि होगी...और अपने साथ-साथ वे अपने मित्र कृष्ण के नाम पर भी अपवाद लगायेंगे। कृष्ण की लोकप्रियता में कमी होगी। प्रजा के मन में उसके सम्मान का आसन नीचा हो जायेगा। नहीं! सुदामा स्वार्थ के लिए, अपने मित्र के यश की बलि नहीं देंगे। यह उन दोनों के लिए ही सुखद नहीं होगा।
पर चाकरी किसी और गुरुकुल में भी तो हो सकती है...अपने ही ग्राम में या उसके निकट, कोई गुरुकुल स्थापित किया जा सकता है। न सही द्वारका के राजकीय गुरुकुल के समान साधन-सम्पन्न; पर साधना-सम्पन्न तो वह हो ही सकता है। यहां भी इतने लोग रहते हैं। उनके भी बच्चे हैं। सुदामा अपने घर पर बटुकों को शिक्षा देते हैं, तो उसी का एक व्यापक रूप, गुरुकुल क्यों नहीं हो सकता। उसकी व्यवस्था सुदामा के हाथ में न हो, ग्राम-प्रमुख के हाथ में हो। अनेक ग्रामों का सहयोग लेकर, गुरुकुल की स्थापना हो तो ग्राम-प्रमुखों की परिषद उसकी व्यवस्था देख सकती है। शिक्षा की आवश्यकता केवल द्वारका के नागरिकों के बच्चों को ही नहीं है, ग्रामवासियों के बच्चे भी दर्शन, साहित्य, ज्योतिष और व्याकरण का अध्ययन कर अपने जीवन को सुधार सकते हैं। अपनी इस विद्या के आधार पर ही तो नागरिक स्वयं को ग्रामीणों से श्रेष्ठ समझते हैं। सुदामा, ग्रामीणों को नागरिकों के समान धरातल पर ला खड़ा करेंगे। वे ग्रामीणों की हीनता के कारण को ही समाप्त कर देंगे। ग्राम के प्रत्येक कुटीर में उपनिषदों के मन्त्र गूंजेंगे। और साहित्य का रस बहेगा...ऐसी चाकरी तो चाकरी भी नहीं लगेगी।
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