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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...


ग्राम-प्रमुख ने फिर उन्हें बात पूरी नहीं करने दी, "शिक्षा-पक्ष तो सभी संभाल लेते हैं। मूल बात तो व्यवस्था-पक्ष की है।" सहसा उसने अपना स्वर बदला, "वैसे भी तुमऔर अन्य ब्राह्मण अपने घरों पर बच्चों को शिक्षा तो दे ही रहे हो, फिर अब गुरुकुल की क्या आवश्यकता आ पड़ी है?"

"हां! घर आये कुछ बटुकों को हम पढ़ा तो लेते हैं," सुदामा बोले, "पर वह तो मात्र आरम्भिक शिक्षा है--अक्षर-ज्ञान, अंक-ज्ञान...।"

"तो गुरुकुल में क्या पढ़ाओगे?"

"दर्शन, काव्य, व्याकरण...।"

ग्राम-प्रमुख जिस दृष्टि से उन्हें देख रहा था, उससे सुदामा आगे बोल नहीं सके।

"तुम्हारा यह गुरुकुल, इस क्षेत्र की प्रजा के कल्याण की योजना है, या एक दरिद्र ब्राह्मण द्वारा अपनी आजीविका का प्रबन्ध करने का प्रयास?"

ग्राम-प्रमुख की दृष्टि से अधिक उसके शब्द सुदामा को चुभे। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ग्राम-प्रमुख उनका शत्रु है। वे तो आज तक यही मानते आये थे कि उनका ग्राम-प्रमुख से कोई सम्पर्क ही नहीं था; और असम्पर्क की स्थिति में कोई सम्बन्ध कैसे हो सकता है, न अच्छा, न बुरा। पर ग्राम-प्रमुख उनकी धारणा को गलत प्रमाणित कर रहा था। उनमें सम्पर्क नहीं था, किन्तु वे एक-दूसरे से परिचित अवश्य थे। वे जानते थे कि वह ग्राम-प्रमुख है; और ग्राम-प्रमुख जानता था कि वे सुदामा हैं। ऐसे में यदि सुदामा ने ग्राम-प्रमुख से सम्पर्क स्थापित नहीं किया, सम्बन्ध नहीं बनाया-दूसरे शब्दों में, उन्होंने यदि उसकी चौखट पर नाक नहीं रगड़ी तो वह उनका शत्रु बना बैठा है। अकारण-द्वेषी और किसे कहते हैं!

पर साथ ही सुदामा की अन्तरात्मा का स्वर गूंज रहा था-'इसमें बुरा मानने की क्या बात है। ठीक ही तो कह रहा है वह। तुमने कब प्रजा के अज्ञान से द्रवित होकर, उन्हें ज्ञान-दान करने की बात सोची। तुमने भी तो अपनी स्थायी वृत्ति की व्यवस्था के लिए ही एक गुरुकुल की स्थापना की परिकल्पना की। पर यह सत्य नहीं है।' सुदामा ने अपना बचाव किया, 'मैंने सदा ज्ञान के विकास और मानव-मात्र के उसके द्वारा लाभान्वित होने की बात सोची है। पहले वही काम मैं ग्रन्थ-लेखन से करता रहा हूं, अब वही अध्यापन के माध्यम से करना चाहता हूं।' "पर तुम्हें भी तो वृत्ति चाहिए।' उनकी अपनी तर्कशक्ति ने उन पर आघात किया-'वृत्ति तो चाहिए।' सुदामा ने प्रतिवाद किया, 'किन्तु केवल मेरा ही स्वार्थ है, प्रजा-जन का कोई लाभ नहीं है?-ऐसी बात होती तो मैं गुरुकुल का विचार अपने मन में भी न लाता। गुरु सांदीपनि ने क्या अपनी वृत्ति के लिए गुरुकुल खोल रखा था? कृष्ण ने क्या अपनी वृत्ति के लिए गुरुकुल स्थापित किया है? यह ग्राम-प्रमुख क्या जनकल्याण को कृष्ण से भी अधिक समझता है।'

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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