पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
उन्हें लगा, उनकी आत्मा में पर्याप्त बल आ गया है। पूर्णतः आश्वस्त स्वर में बोले, "यह योजना प्रजा के कल्याण के लिए है।"
ग्राम-प्रमुख ने उन्हें बड़ी कठोर दृष्टि से देखा, "हमारे प्रजाजन या तो खेती करते हैं या व्यापार। तुम बताओ कि तुम्हारे दर्शन, काव्य और व्याकरण से उन्हें क्या लाभ होगा। उनकी उपज में वृद्धि होगी या उनके व्यापार का विकास होगा?" ग्राम-प्रमुख ने क्षण-भर रुककर उन्हें देखा और फिर स्वयं ही बोला, "तुम्हारी विद्या हमारे किसी काम की नहीं है। तुमसे तो वे ब्राह्मण अच्छे हैं, जो अपने-आपको बहुत विद्वान् नहीं मानते और हमारा पुरोहित-कर्म करते हैं। वे पूजा-पाठ की हमारी दैनिक आवश्यकताएं परी करते हैं। तुम्हारी विद्वत्ता हमारे जीवन का अंश नहीं है। तुम और तुम्हारी विद्या किसी और लोक की वस्तु है। हम नहीं चाहते कि उसकी जड़ें हमारी भूमि में फैलें।"
"क्यों?" सुदामा हक्के-बक्के खड़े थे।
"क्योंकि हमारा जो बच्चा, तुम्हारी इस अलौकिक विद्या के सम्पर्क में आ जायेगा, वह हमारे काम का नहीं रहेगा।" ग्राम-प्रमुख ने अपना क्रोध प्रकट कर दिया, "तुम्हारी इस विद्या की कृपा से मैंने अनेक घर ध्वस्त होते देखे हैं। जो लड़का तुम्हारा दर्शन, काव्य और व्याकरण पढ़ लेता है, वह केवल ग्रन्थों का उत्पादन करता है। अन्न और धन का उत्पादन उसे घटिया काम लगने लगता है। वह अपने पशओं की सेवा करने के स्थान पर विद्वानों की सेवा करना चाहता है। वह अपने खेतों में हल चलाने के स्थान पर, विचारों की खेती करने लगता है। दुकान पर बैठकर माल खरीदने और बेचने के बदले, वह किसी गोष्ठी में बैठकर विचारों का आदान-प्रदान करने लगता है। अन्ततः वे सारे लड़के ग्राम छोड़कर भाग जाते हैं।" ग्राम-प्रमुख का आवेश कम नहीं हुआ था, "तुम्हारी विद्या हमारे किसी काम की नहीं है। यह तो ग्राम-विरोधिनी है। ऐसी विद्या या तो नगरों के काम की है, या वन्य-आश्रमों के काम की। हमारे लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि हमारे बच्चों को कुछ अक्षर-ज्ञान हो जाये और कुछ अंक-ज्ञान। हां! खेती और व्यापार को सुचारु व्यवस्था देने की कोई शिक्षा हो तो हमसे बात करो।" ग्राम-प्रमुख ने रुककर सुदामा को देखा और फिर जैसे निष्कर्ष सुनाता हुआ, शब्दों को चबा-चबाकर बोला, "और यदि कभी किसी चमत्कार से ऐसा कोई गुरुकुल यहां स्थापित हो भी गया तो उसके लिए आचार्य तथा कुलपति राजधानी से आयेंगे। गाँव-गंवई के अध्यापक नहीं रखे जायेंगे।"
इस बार सुदामा ने एकदम नयी दृष्टि से ग्राम-प्रमुख को देखा : यह तो शिक्षा क्षेत्र का कोई मौलिक चिन्तक है। केवल सुदामा से नहीं, वह तो समस्त विद्वत् जन से रुष्ट मालूम होता है। उसके तर्क उतने निस्सार नहीं थे, जितने सुदामा ने सोचे थे। वे तर्क उनके ज्ञान के सामने गम्भीर प्रश्न-चिह्न लगा रहे थे। उनके विषय में सोचना होगा।
लौटते हुए सुदामा के पग बहुत भारी थे। जिस योजना को लेकर वे ग्राम-प्रमुख के पास गये थे, वह किन्हीं धुंधलकों में खो गयी थी। उनके सम्मुख ज्ञान और जीवन के सम्बन्ध में अनेक नये प्रश्न उठ आये थे। सुदामा के लिए आजीविका के प्रश्न को सुलझाने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण ज्ञान-सम्बन्धी इन प्रश्नों को सुलझाना था।
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